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________________ "दक्षिणापथ की साधना - यात्रा", "सद्गुरु पत्रधारा" एवं विशेष में "प्रज्ञासंचयन" पुस्तक के हमारे विस्तृत प्राक्कथन अनुसार हम गूजरात विद्यापीठ से त्यागपत्र देकर गूजरात छोड़कर हंपी-बेंगलोर कर्णाटक में आकर बस गए । यह सारा वृत्तान्त उपर्युक्त पुस्तकादि में एवं अन्यत्र लिखित होने से हम पुनरुक्ति नहीं करते हैं । संक्षेप में ईडर के पहाड़ पर प्रथम मिलन के ढ़ाई वर्ष पश्चात् हमारा रत्नकूट हंपी के पहाड़ पर गुरुदेव सहजानंदघनजी एवं पूज्य माताजी के चरणों में श्रीमद् जीवनादर्श युक्त 'जीवन समर्पण हो गया। श्रीमद् के जीवन से ही संबंधित ईडर पहाड़ से रत्नकूट हंपी पहाड़ पर के दूसरे श्रीमद्-धाम आकर, भारतभर के अनेक संतों के परिचय के बाद हमारा समर्पित होना बहुत कुछ अर्थ रखता था । विमलाताई एवं पंडित श्री सुखलालजी दोनों का स्थान अब गुरुदेव सहजानंदघनजी एवं माताजी धनदेवीजी ने ले लिया था । गुरुदेव स्वयं युगप्रधानपद प्राप्त होने पर भी लघुतावश उन्होंने आश्रम का नाम श्रीमद् राजचंद्र आश्रम ही रखा । परमकृपाळुदेव श्रीमद्जी के ही तत्वप्रचार की गुरुदेव की भावना थी, अपने प्रचार की नहीं । 1 दक्षिणापथ की हमारी साधनायात्रा आत्म-प्राप्ति की चिरयात्रा बनी, सद्गुरु कृपा से महासंकटों एवं अग्निपरीक्षाओं के बीच से पत्नी और उनके ही अनुग्रहों और आज्ञा - आदेशों से अनेक सत्निर्माणों का निमित्त भी बनी । इन सत्निर्माणों में गुरुदेव ने "सप्तभाषी आत्मसिद्धि" ग्रंथ संपादन का हम से आरंभ करवाया जो उनके जीवनकाल में अधूरा ही रह गया । बड़ा अनुग्रह कर बाद में विदुषी विमलाताईने वह पूर्ण करवाया । इन उपक्रमों में गुरुदेव + माताजी दोनों के निकट सान्निध्य में आने का हमें बड़ा पावन अवसर एवं सौभाग्य मिला । दोनों वर्तमान ज्ञानियों का बाह्यांतर जीवन “थोड़ा कुछ" देखने-जानने को मिला प्रत्यक्ष रूप में । वास्तव में अभी भी हम उनके महाजीवन का अल्पांश ही जान, समझ और पकड़ पाए हैं और यहाँ प्रस्तुत कर पाए हैं। क्योंकि हमारा पुण्याभाव एवं बड़ा ही दुर्भाग्य कि अभी तो आरम्भ ही हुआ था, बहुत कुछ संपन्न करना शेष था, तभी पाँच-छह माह में ही बेंगलोर - हंपी आ बसने के बाद हमारे दो बड़े आधार चले गए - प्रथम अग्रज आश्रमाध्यक्ष श्री चंदुभाई का और दूसरा स्वयं गुरुदेव श्री सहजानंदघनजी का । वज्राघात हुए दो दो महान वट-वृक्ष गिरने के अचानक, असमय, अप्रत्याशित ! अभी तो विशेष परिचय ही क्या हुआ था और प्रायोजित नूतन निर्माण ही क्या हुआ था ? तभी - - "आंख्युँनी एंधाणी नहोती, प्रीत्युं बंधाणी नहोती, त्यां तो अंतरनो तूट्यो ताणो-वाणो, मारो चकलांनो माळो वींखाणो, वडवायुं कोणे वींखियुं हो जी ? एजी मारो चकलांनो माळो वींखाणो.... !" ? १. "नेत्रों की पिछान और प्रेम का संधान ! अभी तो हो ही रहा था, इतने में तो टूटा ताना-बाना भीतर का .... नीड़ नष्ट हुआ पंछी का... तोड़ी किसने डालियाँ वटवृक्ष की ?" (xii)
SR No.032332
Book TitleSahajanandghan Guru Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherJina Bharati
Publication Year2015
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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