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________________ • श्री सहजानंदघन गुरूगाथा • (21) बेंगलोर दिनांक : 12-08-1970 परमपूज्य गुरुदेव तथा पूज्य माताजी की सेवा में, प्रताप के भाववन्दन । ___अपने शरीर की अस्वस्थ स्थिति में भी कष्ट उठाकर लिखकर भेजा हुआ आपका अनुग्रह पत्र प्राप्त कर धन्य हुआ । पत्र से बहुत बल और प्रेरणा भी प्राप्त हुए । वह पत्र चन्दुभाई को भी पढ़ने के लिए दिया है । वे आज ही काम से वापस आए हैं । उनका उत्तर बाद में लिखूगा । आपकी प्रभुस्मरण की प्रेरणा से मेरी जागृति तो पुनः दृढ़ हुई और वह स्मरणधाराअखंड स्मरणधारा पुनः आरंभ हो गई । वैसे भी आपका एवं कृपाळुदेव का सतत स्मरण उसमें दृढ़ता करता ही है । हां, रवीन्द्र संगीत प्रतिष्ठान के संगीत भजन के कार्यक्रम उपाधियों के बीच भी आपके अनुग्रह से होते रहते हैं यह आश्चर्यजनक है तथा ये अतमुखता को टिकाए रखते हैं । भजनों के द्वारा गहन आत्मानन्द का सुन्दर अनुभव होता रहता है । विशेष में आपके एवं कृपाळुदेव के अनुग्रह के ही फलस्वरूप श्री आत्मसिद्धिशास्त्र के अनुवाद का कार्य गत गुरुवार से थोड़ा थोड़ा ही सही शुरू हो गया है और आपकी सूचनानुसार गुजराती, संस्कृत और हिन्दी इस क्रम में गाथाएँ सभी लिखी जा रहीं हैं । 2 से 25 आनंदपूर्वक पूर्ण हो चुकी हैं । साथ साथ हिन्दी गद्यानुवाद करते करते हिन्दी पद्यानुवाद की भी अन्तः प्रेरणा हुई वह भी मेरी टूटी-फूटी भाषा में किया है, परन्तु अनुवाद के उपर्युक्त क्रम में उसे सम्मिलित नहीं किया है, अगर आप उसे पसंद करेंगे और आज्ञा देंगे तो ही उसे उसमें जोड़ दूंगा । अनुवाद की दो प्रतिलिपियां या तो डाक द्वारा आपको भेजूंगा या पहले मेरा वहाँ आना संभव हुआ तो मेरे साथ ही सब लेकर आंऊगा इस विषय में पीछे पढ़ने की कृपा करें । (1) श्री आत्मसिद्धि के अनुवाद के पृष्ठों के अतिरिक्त - (2) “साधनायात्रा का संधानपंथ" नामक वहाँ हम्पी की मेरी गुरुपूर्णिमा की यात्रा समय का दूसरा लेख एवं (3) आपके आशीर्वाद से प्रारंभ हुई चिंतन विचारणा के पश्चात् लिखा हुआ 'जैन दर्शन विद्यापीठ' की योजना का लेख वैचारिक योजना का (आर्थिक बाद में तैयार करूँगा) भेजा है । सूचित सारे सुझाव (सुधार-संशोधन) करें यह विनति है। श्री देवशीभाई के बारे में आपने जो सूचित किया वह नितांत यथायोग्य है । उन्हें आजकल में पत्र लिख दूंगा। ____ अंत में विदित करना यह है कि यहाँ कामकाज के वर्तमान उपाधियोग के बीच भी मेरा चित्त कुपाळुदेव के चरणों में और वहाँ ही रहता है । वहाँ पुनः पुनः आकर रहने की प्रेरणा होती रहती है । आगामी पूर्णिमा का लाभ उठाने का भी उत्कृष्ट भाव है । उपर्युक्त बातों के । (1101
SR No.032332
Book TitleSahajanandghan Guru Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherJina Bharati
Publication Year2015
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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