SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॥ ॐ नमः ॥ जैन वास्तुसार वास्तव : वास्तुविमर्श - निष्कर्ष "Essence of Jain Vaastu" वास्तु की वैज्ञानिकता : वास्तविकता 'वास' अर्थात् (वास्तु=) जहाँ हम निवास या कार्य करते हैं उस भवनादि में प्रकृति के पांच तत्त्वों / महाभूतों (क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा) का विवेकमय विनिवेश, व्यवस्था, यथास्थान-यथोचित स्थान पर स्थापना करने से सम्बन्ध रखता है वास्तु। ___ यह विनिवेश, यह वास्तु-विन्यास, ठीक ढंग से, सही स्थान पर, समुचित रुप से हो तो इन पांचों प्राकृतिक तत्त्वों का संतुलन बना रहता है। इससे जीवन में (बसने वाले के) सुख, समता, शांति, स्वास्थ्य, संवादिता, सकारात्मकता, समृद्धि आदि का प्रवाह बना रहता है। सूर्यप्रकाश, शुद्धवायु, निर्मलजल, उन्मुक्त आकाश, ऊर्वरा एवं स्थिरसशक्त धरा आदि पंच महाभूत के प्राकृतिक तत्त्वों के द्वारा वैश्विक ऊर्जा cosmic Energy का अपने निवास-भवन में सही मार्ग से, सही दिशा से, बिना अवरोध - अंतराय के, आवागमन एवं संस्थापन - स्थिरीकरण बना रहता है। वास्तु विनियोग दृष्टि इसमें कारणभूत है। यह सारी नैसर्गिक-प्राकृतिक प्रक्रिया वास्तविक, सहज और वैज्ञानिक है। अतः "वास्तु" यह एक “यथार्थ विद्या" है, "विज्ञान" है, सृष्टि के संरचना, शिल्प-स्थापत्य आदि नियमों पर आधारित "गणित" का एक ठोस धरातल है। वह कोई 'वहम' या अंधश्रद्धा' या "मनगढन्त विद्या" नहीं हैं। आदिमानव के गुफाओं के, तरुतलों के, कुटिर-झोपड़ियों के वास से लेकर आधुनिक मानव के छोटे-बड़े मकानों-भवनों-एपार्टमेन्टों में वास तक और विविध, आलयों, मंदिरों, शिल्पकलाकृतियों के निर्माण तक वास्तुशिल्प का अनेकविध, बहुमुख विकास हुआ है। वैज्ञानिक वास्तु का, वास्तु की वैज्ञानिकता एवं प्राकृतिकता को केन्द्र में, दृष्टि में, रखकर यहां हम इस ग्रंथ में मनुष्य, सर्वसामान्य मानव, आम जन के लिये उपयोगी ऐसे गृह या कार्यस्थल के वास्तु का चिंतन-अध्ययन-विमर्श करेंगे। स्थलमर्यादा के कारण संक्षेप में, मुद्दों की सूत्र शैली में और बाद में विस्तार से। जैन वास्तुसार
SR No.032324
Book TitleJan Jan Ka Jain Vastusara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherVardhaman Bharati International Foundation
Publication Year2009
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy