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________________ प्राक्कथन गुर्जर जन्मभूमि से दूर दक्षिण में कर्णाटक में बेंगलोर और हंपी की आत्मदृष्टा सद्गुरुदेव श्री सहजानंदघनजी की पराभक्तिमयी निश्रा-भूमि में भेजा। इस प्रकार मेरी आगे की साधनायात्रा के परम प्रेरक निमित्त भी अपने अग्रज बंधु के साथ आर्ष-दृष्टा पंडितजी ही बने। १९७० में पूज्य गुरुदयाल मल्लिकजी के महाप्रयाण के बाद उन्होंने करवाया हुआ मेरा साधनाक्षेत्र-परिवर्तन एवं सद्गुरुनिश्रा-परिवर्तन एक ओर से उनकी परम पावन प्रेम-प्रांजल निश्रा को छोड़ने के विरह-वियोग के रंज से रंगा हुआ था, तो दूसरी ओर से एक अभिनव क्षेत्रकी सृष्टि में पूर्व-परिचित अन्य अनन्य परमगुरु की वैसी ही पावन-निश्रामें उन्हीं की (पंडितजी की) एक आर्षदृष्टि पूर्ण परिकल्पना की कार्यपूर्ति की अविचारणीया गुरुणां आज्ञा उठाने के आनन्द से भी भरा हुआ था। पंडितजी की यह परिकल्पना, यह परम-मनीषा थी, सर्व जीवन-विद्याओं एवं प्रधानतः आर्हत् आत्मविद्या से युक्त एक अभूतपूर्व जैन विश्वविद्यालय के नूतन निर्माण की। उनका परम पावन सान्निध्य छोड़ते समय विदा की बेला उन्होंने अपनी अंतर्वेदना से भरा हुआ, आर्षदृष्टिपूर्ण यह आदेश और मंगल आशीर्वाद दिया थाः / “हम जैनों का यह महाप्रमाद है कि हमने विगत २५०० वर्षों में, अपने पास परा-अपरा सर्व विद्याओं की विशाल सम्पदा होते हुए भी, तक्षशिला और नालन्दा की कोटि का एक भी जैन विश्वविद्यालय निर्मित नहीं किया... । तुम लेखक और गायक हो, तो किताबें तो लिखोगे और रिकार्ड भी उतारोगे, परंतु ऐसे विश्वविद्यालय के निर्माण का युगसापेक्ष महाकार्य करो। हंपी के श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम पर यह कार्य कठिन होते हुए भी सम्भव हो सकेगा, क्योंकि वहाँ श्री सहजानंदघनजी-भद्रमुनिजी बड़ी विशाल दृष्टिवाले सत्पुरुष हैं, संप्रदाय मुक्त हैं और मेरा उन से सार्थक परिचय हुआ है। फिर तुम्हारे अग्रज वहाँ के आश्रमाध्यक्ष हैं, उन से भी मेरी विस्तृत वार्ता हुई है। आजीविका हेतु व्यवसाय में तुम्हारी भागीदारी के उपरान्त वे इस विद्या-कार्य में भी तुम्हारी सहायता करेंगे ऐसा मेरा विश्वास है ... इसलिए शुभस्ते पंथानः !" और मैं आर्ष-दृष्टा, सर्व हित-स्त्रष्टा पूज्य पंडितजी के इस आदेशआशीर्वाद को निःशंक आनंदभाव से शिरोधार्य कर, उनका पावन सामीप्य एवं गुजरात विद्यापीठ का प्रतिष्ठायुक्त प्राध्यापक पद त्यागकर अहमदाबाद छोड़कर
SR No.032298
Book TitlePragna Sanchayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherJina Bharati
Publication Year2011
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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