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विस्मरण न हो ! सतत — मैं आत्मा हूँ यह भान बना रहे । इस तरह से बस्तु-तत्त्व का रहस्य जल्दी से समझ में आ जाय इस हेतुसे इन पांच समवाय कारणों को बताया है । ऐसे कारण और भी हैं - उपादान, निमित्त आदि कई हैं। पर वस्तु, कार्य-कारण न्याय से विशेष रूप में समझने के लिये पाँच समवाय कारण भी बतलाये हैं। उनमें से पूर्वकृत और पुरुषार्थ दो कारण हैं । तो केवल दो कारणों से नहीं पर पॉच कारणों से कार्य होता है। अब कोई कहता है, “पुरुषार्थ बड़ा या भाग्य ?” कौन बड़ा ? “पुरुषार्थ"
___मुख्यता पुरुषार्थ की है। भाग्य भी तो पुरुषार्थ से बना है ! मुख्य केन्द्र तो पुरुषार्थ है। वह ( भाग्य ) असत् पुरुषार्थ से बना था। अब सत्पुरुषार्थ करो तो अच्छा निर्माण होगा । तो पुरुषार्थ की मुख्यता है । पुरुष + अर्थ = पुरुषार्थ । अर्थ याने प्रयोजन । यह पुरुष याने आत्मा । प्रकृति और पुरुष – सांख्य परिभाषा में आत्मा को पुरुष कहा है । इसको, पुद्गल को प्रकृति कहा है। आठ कर्म प्रकृति । पुरुष का अर्थ याने प्रयोजन जिससे सिद्ध हो इस प्रकार की मेहनत वह है पुरुषार्थ । जों पुरुष को, आत्मा को जिस मेहनत के फलस्वरूप आत्मा को दुःख ही दुःख मिले ऐसी मेहनत असत् पुरुषार्य और जिस मेहनत के फलस्वरूप सुख ही सुख मिले वह है सत् पुरुषार्थ । इस तरह से पूर्वकृत और पुरुषार्थ के विषय में सबेरे कहा था और अब इसका विस्तार से थोड़ा सा दिग्दर्शन किया ।
ॐ शांति......