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________________ ७८ कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन म्लेच्छपल्लि (११२.५)-कुवलयचन्द्र ने विन्ध्यपर्वत की गुफा में म्लेच्छपल्लि को देखा ।' उस पल्लि में तुरन्त पकड़े गये कैदी रोने की करुण आवाज कर रहे थे, उस करुण आवाज को सुनकर वहाँ की स्त्रियाँ द्रवित हो रही थीं तथा 'छोड़ो', 'छोड़ो' शब्दों का उच्चारण कर रही थीं-(जुवईजण-मण-संखोहमुक्क-किकि-ति णिसुय-पडिसद्दा-(११२.७)। उनके शब्दों को सुनकर गौसमूह रंभाने लगा था (११२.६, ८)। कुमार ने देखा कि उस पल्लि में उज्ज्वल चाँदी के ढेर सदश वनहस्तियों के दाँतों का ढेर लगा था, अंजन के पर्वत सदृश जंगली भैसों और गवलों (के चमड़ों का) ढेर लगा था, घास की तरह चमरी गायों के बाल बिखरे पड़े थे, मोरपिच्छ से बने मंडपों में मुक्ताफल से चौक पूरे गये थे तथा महिष, बैल, गाय एवं जंगली जानवरों को मारने के कारण वहाँ की भूमि रक्त रंजित हो रही थी (११२.१३) । उस महापल्लि में महामुनि सदृश धनुष (धर्म) के व्यापार में ही युवक जन तल्लीन थे, दूसरे नारायण सदृश केवल सुरापान में व्यस्त थे, कुछ त्रिनयन सदश केवल वाणों द्वारा अग्नि में त्रिपुर नगर को नष्ट कर रहे थे। कुछ सिंह सदृश मदोन्मत्त महावनगजेन्द्र के कुंभस्थल से मुक्ता निकाल रहे थे तथा कुछ बाघ सदृश भैसों पर प्रहार करने में ही तल्लीन थे (११२.१४, १६) । उप्त पल्लि में हाथपांव काटना साग-सब्जी काटने सदृश था, घाव करना हंसी खेल था, सूली पर चढ़ाना सिंहासन पर बैठाना जैसे था, हाथी के पैर से कुचलना अंग मरोड़ने जैसा था, पर्वत पर से गिराना आँख झपकाने जैसा था, कान, नाक, होंठ काटना मांस काटने के समान था, किसी को पानी में फेंक देना जलक्रीड़ा सदृश था तथा अग्नि में प्रवेश करना सीता अपहरण के समान माना जाता था (११२.१६, १९)। उस पल्लि के निवासी जो भी गलत कार्य करते थे उसे पापकर्म के कारण सुख का निमित्त मानते थे। उन दुष्ट किरातों को ब्राह्मणों को मारना जैसे घुटी में पिलाया गया था, गायों को मारना मुक्ति-श्रुति जैसा था, परदारा का सेवन उत्सव सदृश था, सुरापान करना यज्ञ करने जैसा था, उनके लिए चोर विज्ञान ओंकार सदश था, बहिन की गाली देना गायत्री जाप करने जैसा था, तथा 'माता ! बहिन ! तुम्हारे पति को मारकर खून पी जाऊँगा', इस प्रकार का वचन उनको शपथ देने जैसा था (११२.२१-२४)। इस प्रकार उस म्लेच्छपल्लि में 'मारो-मारो, लूटो, बांधों' आदि के शब्द ही हो रहे थे। ऐसी पल्लि को देखते हुए कुमार विन्ध्यपर्वत के जंगल में प्रवेश कर गया (११२-२६)। इस प्रकार की म्लेच्छपल्लि को आधुनिक पहचान नहीं की जा सकी है। किन्तु इसका अस्तित्व विन्ध्यपर्वत के पास रहा होगा। १. विंझ-सिहराणं कुहरंतरालेसु केरिसाओ पुण मेच्छ-पल्लीओ दिठ्ठाओ कुमारेणं ११२.५.
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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