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________________ कुवलयमालाका का सांस्कृतिक अध्ययन था । वत्स जनपद के अन्तर्गत प्रयाग के आस-पास का प्रदेश सम्मिलित था। यह सम्भवतः यमुना के किनारे स्थित था । काशी जनपद इससे सटा हुआ था। विदेह (२४०.२२, २४३.१३ ) - कामगजेन्द्र विद्याधर कन्याओं के साथ जब अपरविदेह में पहुँचा तो उसे आश्चर्य होता है कि वह कहाँ आ गया । वह स्वर्ग, विदेह, उत्तरकुरु, जन्मान्तर, विद्याधर- लोक में से किसी एक प्रदेश की कल्पना करता है । किन्तु बाद में श्रीमन्धर स्वामी से पता चलता है कि वह अपरविदेह था, जो भारतवर्ष से प्रत्येक स्थिति में भिन्न था। प्राचीन भारतीय साहित्य में विदेह के जो उल्लेख मिलते हैं, उनसे ज्ञात होता है कि वर्तमान सीतामढ़ी, जनकपुर और सीताकुण्ड तिरहुत का उत्तरीय भाग तथा चम्पारन का पश्चिमोत्तर भाग प्राचीन विदेह में परिगणित था । " किन्तु अपरविदेह की पहचान भारत के किसी प्रदेश से नहीं होती । सम्भवतः अपरविदेह के उत्तर में ऐसे प्रदेश को कहा जाता रहा हो जहाँ की संस्कृति एवं जीवन भारत के इतर भाग से अच्छा था । जैन साहित्य में पूर्वविदेह और उत्तरविदेह के पर्याप्त उल्लेख मिलते हैं । श्रीकंठ ( १५०.२० ) - दक्षिण की विजयपुरी नगरी के मठ में श्रीकंठ ( सिरिअंठ या सिरिअंग ) के छात्र रहते थे । श्रीकंठ सम्भवतः कुरुजांगल को कहा जाता था । To अग्रवाल ने इसे थानेश्वर कहा है । सिन्ध (१५०.२०, १५३ . २ ) - सिन्धु देश के निवासी सैंधव कहे जाते थे । सैंधव विजयपुरी के मठ एवं बाजार में आते-जाते रहते थे । उद्योतन ने सैन्धवों को धर्वप्रिय कहा है । कालिदास ने भी सिन्ध में गन्धर्वों का निवास बतलाया है । सिन्धुदेश सिन्धुनदी के दोनों किनारों पर उसके मुहाने तक विस्तृत था । ज्ञात होता है कि सिन्धु जनपद उत्तरी और दक्षिणी दो भागों में विभक्त था । भारतीय साहित्य में सिन्धु- सौवीर का एक साथ उल्लेख मिलता है । सम्भवतः इन दोनों की सीमाएँ एक दूसरे से सटी हुई थीं । सिन्ध जनपद अच्छी किस्म के घोड़ों के लिए प्रसिद्ध था । उद्योतनसूरि ने सैन्धव अश्वों का भी उल्लेख किया है । १. महाभारत, शान्तिपर्व, ४९-७९. २. क० ए० ज्यो०, पृ० ७०९. ३. कि होज्ज इमो सग्गो किं व विदेहो णणुत्तरा - कुरवो । किं विज्जाहर- लोओ किं वा जम्मंतरं होज्ज || कु० २४०.२२ एस अवरविदेहो, सो उण भरहो - । २४३.१३. ४. ५. ६. रघुवंश, १५. ८७. ७. शा० आ० भा०, पृ० ६७. अमरकोष ३.८, ४५, यशस्तिलकचम्पू (हिन्दी), पृ० ३१४.
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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