SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन है। इनकी प्राकृत कथाकृति तरंवती मूलरूप में प्राप्त नहीं है । तरंगलोला नाम से उसका संक्षिप्तरूप प्राकृत में उपलब्ध है, जो सम्भवतः पादलिप्त के सौ वर्ष बाद लिखा गया था। इसमें तरंगवती नामक युवती के पूर्व-जन्म के प्रेम एवं वर्तमान जन्म के वैराग्य की कथा वर्णित है।' हाल एवं गाथासप्तशती-पादलिप्त के साथ हाल का उल्लेख हुआ है। हाल ने कोश की रचना की थी। कोश का आशय यहाँ हाल की गाथासप्तशती से है, जिसका प्राचीन नाम गाथाकोष था। गाथासप्तशती मुक्तककाव्य है, इसमें प्रसिद्ध कवियों की लगभग सात सौ गाथाओं का संकलन है। इस ग्रन्थ का रचनाकाल साधारणतः ई० प्रथम शताब्दी माना जाता है। यह ग्रन्थ सांस्कृतिक दृष्टि से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। गुणाढ्य एवं बृहत्कथा-'ब्रह्मा स्वरूप गुणाढय की सरस्वती स्वरूप बहत्कथा सभी कलाओं से युक्त कविजनों को शिक्षा देनेवाली है (३.२३)।' उद्योतनसूरि का यह कथन बृहत्कथा और गुणाढ्य के महत्त्व को प्रकट करता है। वर्तमान में महाकवि गुणाढ्य की बृहत्कथा मूलरूप में उपलब्ध नहीं है, किन्तु उस पर आधारित सोमदेव द्वारा रचित कथासरित्सागर उसके विकसित स्वरूप को प्रकट करता है। गुणाढय एवं उनकी बृहत्कथा पर विन्टरनित्ज, कीथ,' डा० उपाध्ये, आदि ने विशेष प्रकाश डाला है। महाभारत और रामायण-उद्द्योतन ने इन दोनों महाकाव्यों के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हुए कहा है कि व्यास और वाल्मीकि ने इतनी महान् रचनाएँ कर दी हैं कि उनको लांघना दुष्कर है (३.२४)। इससे ज्ञात होता है कि सातवी, आठवीं सदी में भी इन महाकाव्यों का पर्याप्त महत्त्व था । वाण ने कहा है कि महाभारत की कथा तीनों लोकों में फैल गयी थी।" बाण और कादम्बरी-बाण सातवीं शताब्दी के प्रसिद्ध कवि थे। उनकी कादम्बरी कथा तत्कालीन कवियों में पर्याप्त सराही जाती थी। उद्योतनसूरि ने चन्द्रापीड की जाया कादम्बरी और वाण की कृति कादम्बरी की श्लेषालंकार से प्रशंसा करते हुए उसे लावण्य और वदन से सुभग (सौन्दर्य तथा उक्तिसौष्ठव १. द्रष्टव्य-हिन्दीसार-'तरंगवती' - ज्ञानभारिल्ल, बीकानेर । २. श्री वा० वि० मिराशी-'द ओरिजनल नेम आफ द गाथा-सप्तशती', नागपुर ओरियन्टल कान्फ्रेंस (१९४६), पृ० ३७० ७४. ३. दृष्टव्य-लेखक का--'गाथासप्तशती की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि' नामक लेख । ४. विन्टरनित्ज, हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर, भाग २. ५. ए हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर, पृ० २६६-८१. ६. 'पैशाची लेंग्युएज एण्ड लिटरेचर,' एनल्स आफ द भंडारकर ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, भाग २१, (१९४०), पार्ट १.२. ७. 'कथैव भारती व्याप्नोति जगत्त्रयम्'-हर्षचरित ।
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy