SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 411
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९१ धार्मिक जगत् आदित्य को सरागी देव कहा गया है' तथा संकट के समय रवि को प्राणरक्षा के लिए स्मरण किया गया है । अरविन्द, अरविन्दनाथ, आदित्य, रवि ये सभी नाम सूर्य के हैं । सूर्य देवता भारतीय समाज में अत्यन्त प्राचीन समय से पूजा जाता रहा है । पहले गोलाकार, कमल आदि प्रतीक के रूप में सूर्य की पूजा होती थी । बाद में सूर्य देवता की मूत्तियाँ भी बनने लगीं, जिनके लिए पृथक स्तोत्र भी थे। सातवीं शताब्दी में हर्षवर्धन के दरबार के कवि मयूर ने कुष्ठरोग से मुक्ति पाने के लिए सूर्य- शतक की रचना की थी । आठवीं सदी में भवभूति ने मालतीमाधव में सूर्य की स्तुति की है । राजस्थान में सूर्य उपासना पर्याप्त प्रचलित थी । उद्योतन के समय तक सूर्य एक प्रमुख देवता माना जाने लगा था । सूर्य का आदित्य नाम राजाओं के नाम के साथ जोड़कर सूर्यमन्दिर बनवाये जाते थे । इन्द्रराज चाहमान ने इन्द्रादित्य नाम का एक सूर्यमन्दिर बनवाया था । भीनमाल उस समय सूर्य - पूजा का प्रधान केन्द्र था, जहाँ के सूर्यदेवता को जगत-स्वामिन् कहा जाता था । " डा. ओझा के अनुसार ६वीं से १४ वीं सदी तक सिरोही राज्य ( राजस्थान) में ऐसा कोई गांव नहीं था जहाँ सूर्यमन्दिर या सूर्यदेवता की खंडित मूर्ति न हो । सूर्य उपासना की इस प्रसिद्धि के परिप्रेक्ष्य में सम्भव है, उद्योतन के समय अरविंदनाथ के नाम से कोई सूर्यमन्दिर रहा हो । मूलस्थान भट्टारक – उद्योतन ने केवल राजस्थान में प्रचलित सूर्यउपासना का ही परिचय नहीं दिया, अपितु राजस्थान के बाहर के प्रसिद्ध सूर्य उपासना के केन्द्र मूलस्थान- भट्टारक का उल्लेख किया है। मथुरा के अनाथ मण्डप में कोढ़ियों का जमघट था । उसमें चर्चा चल रही थी कि कोढ़ रोग नष्ट होने का क्या उपाय है ? तक एक कोढ़ी ने कहा- मूलस्थानभट्टारक लोक में कोढ़ के देव हैं, जो उसे नष्ट करते हैं । इस प्रसंग की तुलना साम्ब की कथा से की जा सकती है । साम्बपुराण, भविष्यपुराण (अ० १३९), वराहपुराण एवं स्कन्दपुराण से यह ज्ञात होता है कि यादव राजकुमार साम्ब, जो कोढ़ से पीड़ित था, ने सूर्य उपासना के नये स्वरूप को प्रारम्भ किया तथा मूलस्थान के प्रसिद्ध सूर्य मंदिर का निर्माण कराया । यह मूलस्थान पंजाब की चिनाव नदी के तट पर था । इसको मूलस्थान सम्भवतः इसलिए कहा गया है १. गहाइच्चा - एए सव्वेदेवा सराइणो दोस- मोहिल्ला – कुव० २५६.३२. २. को वि रविणो — उवाइय सहस्से भणइ – वही, ६८.१८-१९. ३. द्रष्टव्य, डा० भण्डारकर - वै० शै० घा० म० पू० १७४-७५. ४. महेन्द्रपाल, द्वितीय, का प्रतापगढ़ अभिलेख । ५. विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य, श० - रा० ए०, पृ० ३८१-८६. ६. सिरोही राज्य का इतिहास, पृ० २६. ७. मूलत्थाणु भण्डारउ कोढई जे देइ उद्दालइज्जे लोयहुं । – कुव० ५५.१६.
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy