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________________ ३८८ कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन पैशाची में बोलते थे। पाजिटर, ग्रियर्सन के अनुसार पिशाच प्रारम्भ में वास्तविक जाति की संज्ञा थी। बाद में उसका रूप विकृत हुआ है।' राक्षस-कुवलयमाला में एक राक्षस का वर्णन है, जिसने लोभदेव का जहाज अपना बदला लेने के लिए समुद्र में डुबो दिया था और अपनी दायीं दीर्घभुजा के प्रहार से जहाज के टुकड़े-टुकड़े कर दिये थे (६८.३३)। एक अन्य प्रसंग में भी भूत-पिशाच के साथ राक्षसों को भी श्मशान में मांस खरीदने के लिए बुलाया गया है (२४७.३१) । वेताल-वैरगुप्त की कथा में वेताल इसका मांस खरीदने श्मशान में आता है। तथा उसके कच्चे मांस को चखकर अग्नि में पकाकर हड्डियों सहित खरोदने को तैयार होता है। वैरगुप्त अपने मांस की कीमत के बदले उससे एक चोर का रहस्य जानना चाहता है। वेताल उसके साहस एवं बलिदान पर प्रसन्न होकर उसे वर प्रदान करता है (२४८.१,३९)। कच्चा मांस खाने के लिए वेताल वाण के समय में भी प्रसिद्ध थे। महाडायिनी-राक्षस के वर्णन के प्रसंग में उद्योतन ने कहा है कि मुखकुहर से अग्नि की ज्वाला निकल रही थी, बड़े-बड़े जिसके दांत थे, बगल में बच्चे रो रहे थे तथा श्रृगालों को तरह भयंकर आवाज करती हुई नृत्य में तल्लीन महाडायिनी का हास लोक में व्याप्त था (६८.२४) । उसके गले में नरमुण्डों की माला पड़ो हुई थी (६८.२५) । इस स्वरूप से तो यह महाडायिनी दुर्गा के किसी रूप का प्रतिनिधित्व करती है। ये भूत-पिशाच इत्यादि देवयोनि में होते हुए भी मांसभक्षण जैसे निःकृष्ट कार्य को क्यों करते थे? इस प्रश्न का उत्तर ग्रन्थकार ने स्वयं भगवान् महावीर के मुख से दिलवाया है। उसमें कहा गया है कि व्यन्तरजाति के देव वास्तव में माँस आदि नहीं खाते हैं । स्वभाव से कुछ विनोदप्रिय होने के कारण ये नाना क्रियाओं द्वारा मनुष्यों के सत्य, साहस एवं लगन की परीक्षा लेते हैं और सन्तुष्ट हो जाने पर उनकी सहायता करते हैं-'इमे वंतरा तस्म सत्तं जाणा-खेलावणाहि परिक्खंति-(२४८.११,१३)। वेतालों द्वारा मांस-भक्षण का यह औचित्य ग्रन्थकार ने अपनी अहिंसक संस्कृति से प्रभावित होकर संभवतः दिया है। वास्तव में ७-८वीं शताब्दी में वेतालों को मांस-विक्रय ने एक साधना का रूप ले लिया था। बाण ने हर्षचरित के स्कन्धावार के वर्णन में कहा है कि कुछ राजकुमार खुलेआम वेतालों को मांसबेचने की तैयारी कर रहे थे। महाकाल के मेले में प्रद्योत के राजकुमार द्वारा महामांस का उल्लेख है (हर्ष० १९९) । वास्तव में यह क्रिया शैवों में कापालिक १. जे० आर० ए० एस०, १९१२, पृ० ७१२. २. हर्षचरित, सूर्यास्तवर्णन (उ०-८).
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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