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________________ धार्मिक जगत् ३८७ थे। उनकी पूजा होती थी। इन्द्र एवं सूर्य के वे अनुचर थे। गन्धर्वो की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कहा गया है कि ये ब्रह्मा की आज्ञा से दक्ष द्वारा उत्पन्न किये गये। ब्रह्मा का तेज (गा) पान करने (ध्यायति) के कारण ही इन्हें गन्धर्व कहा जाता है । हेमकूट एवं सुमेरुगिरि इनका निवासस्थान माना जाता है।' नाग, नागेन्द्र, महोरग-नाग एवं महोरग को बलि देकर सन्तान प्राप्ति की कामना कुव० में की गयी है। यह एक प्राचीन परम्परा थी। ज्ञाताधर्मकथा (२, १० ४६) में भी बन्ध्या स्त्रियाँ इन्द्र, स्कन्द, नाग, यक्ष आदि की पूजा किया करती थीं। जैनपरम्परा में राजा भागीरथ के समय से नागबलि का प्रचार हुआ था।' २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ से भी नागकुमार का श्रद्धालु के रूप में सम्बन्ध रहा है। महाभारत (७-८) में नागों को कडू अथवा सुरसा की जाति का कहा गया है। बौद्ध साहित्य में साधारण मनुष्यों के रूप में इनका वर्णन मिलता है। वराहपुराण में नाग की उत्पत्ति के सम्बन्ध में रोचक वर्णन प्राप्त है।' कुछ आधुनिक विद्वानों ने भी नाग जाति के सम्बन्ध में अध्ययन प्रस्तुत किये हैं। यक्ष-कुवलयमाला में यक्षों का वर्णन भगवान् ऋषभदेव के भक्तों के रूप में किया गया है। यक्षराजा रत्नशेखर की कथा से प्रतीत होता है कि यक्ष साधारण-मनुष्यों की आकृति के होते थे, किन्तु उनमें कई ऋद्धियां होती थीं। वे सामान्यतः लोगों के सहायक देवता थे। इस कारण प्राचीन भारत में यक्षपूजा का बहुत महत्त्व था। यक्षों की पूजा के लिए नगरों यक्षायतन बने होते थे, जिन्हें चेइय अथवा चैत्य कहते थे।" भूत-कुवलयमाला में भूत का पिशाच के साथ उल्लेख हना है, जिसे राजा ने बलि दी थी (१४.५)। पुराणों में इन्हें भयंकर और मांसभक्षी कहा गया है। कथासारित्सागर में इनका परिचय देते हुए कहा है कि भूतों के शरीर की छाया नहीं पड़ती, वे हल्दी सहन नहीं कर सकते तथा हमेशा नाक से बोलते हैं (१, परि० १) । जैन साहित्य में भी इनके प्रचुर उल्लेख मिलते हैं। भूतमह नाम का उत्सव चैत्रपूर्णिमा को मनाया जाने लगा था। पिशाच--उद्योतन ने पिशाचों के सम्बन्ध में कुछ विशेष नहीं कहा है। वर्णन प्रसंगों से ज्ञात होता है कि वे श्मशानों में रहते थे तथा अपनी भाषा १. राय, पौ० ध० एवं स०, पृ० ९५-९६. २. ज०, जै० आ० सा० भा० स०, पृ० ३६.३७. ३. वाचस्पत्यम्, भाग, ८. ४. द्रष्टव्य-हार्डी, मैनुएल आफ बुद्धिज्न, पृ० ४५, बुद्धिस्ट इंडिया, पृ० २२०. ५. ज०, जै० आ० भा० स०, पृ० ४३७-४३. ६. वही-पृ० ४४७-४८.
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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