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________________ ३४९ प्रमुख - धर्म साथ इनका (गुग्गुल) उल्लेख भी किया है ।" प्रारम्भ में सम्भवतः गुग्गुल बेचने वाले को गुग्गुलिक कहा जाता रहा होगा । किन्तु आठवीं सदी में इनकी कोई विशेष प्रतिष्ठा नहीं थी, क्योंकि ये भिखारी के रूप में अपना भरण-पोषण करते थे । पार्थिव पूजनवादी - 'मिट्टी की मूर्ति बनाकर मन्त्रोच्चारण द्वारा पापों को जलाने से सुख की प्राप्ति होती है, दीक्षा लेने वालों के लिए यही एक धर्म है । इस मत के प्राचार्य का सम्वन्ध मन्त्रवादियों से रहा होगा, जो मन्त्रों द्वारा अनेक चमत्कार दिखाने के लिए प्रसिद्ध थे । मन्त्रों द्वारा पापों से मुक्त होना राजा को नहीं जंचता, क्योंकि पाप-बन्धन तो तप और ध्यान द्वारा ही नष्ट हो सकते हैं। शंकर की पार्थिव मूर्ति बनाकर पूजन करना आज भी प्रचलित है । विवाह कार्य में भी गौरी गणेश आदि की मूर्तियाँ पार्थिव ही होती हैं, जिनका मन्त्रों से पूजन किया जाता हैं । कारुणिक - 'दुखी कीट पतंगों को उनके इस कुजन्म से छुटकारा दिलाकर अगले जन्म में वे सुखी होंगे ऐसा सोचना ही करुणामय धर्म है । ४ इन कारुणिकों का सम्बन्ध वाचस्पति मिश्र के अनुसार शैव सम्प्रदायों से था । ९वीं सदी में शैवधर्मं में प्रमुख चार सम्प्रदाय थे- शैव, पाशुपत, कापालिक एवं कारुणिकसैद्धान्तिक । ब्रह्मसूत्र के शंकरभाष्य में कारुणिकों को कारुक - सिद्धान्ती कहा गया है । यामुनाचार्य के आगमप्रमाण में इनको कालमुख कहा गया है । " सम्भवतः कारुणिक, कारुक एवं कालमुख इन तीनों के सिद्धान्तों में समानता रही होगी। राजा दृढ़वर्मन् जीवों पर इस प्रकार की करुणा को उचित नहीं समझता, जिसमें उन्हें अपना जीवन खोना पड़े। क्योंकि जो जीव जिस योनि में जन्म लेता है वहीं संतुष्ट रहता है । कोई भी जीव मरना नहीं चाहता । अतः करुणपूर्वक किसी को मार कर उसके वर्तमान जीवन से छुटकारा दिलाना उचित नहीं है । दुष्ट- जीवसंहारक - शार्दूल, सिंह, रीछ, सर्प एवं चोर आदि दुष्ट हैं । ये सैकड़ों जीवों को मारते हैं । अतः उनका बध करना ही धर्म है | ( कुव० १. एकम्मि अणाह - मंडवे – गुग्गुलिय भोया । - - वही ५५.१०,१२. २. काऊण पुढवि-पुरिसं डज्जइ मंतेहिं जत्थ जं पावं । दी विज्जइ जेण सुहं सो धम्मो होइ दिक्खाए ॥ - कुव० २०५.१९. ३. वही, २०५.२१. ४. दुक्खिय - कीड पयंगा मोएऊणं कुजाइ जम्माई | अण्णत्थ होंति सुहिया एसो करुणापरो धम्मो ॥ - वही २०६.३. ५. ह० - य० इ० क०, पृ० २३४. ६. श० रा० ए०, पृ० ४१३. ७. कु० - २०६.५.
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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