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________________ ३२४ कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन १. मरकयमणि-कोट्टिम (१६६ २१) २. कदलीघर (१६६.२२, १६७.१३) ३. चंपकवीथि (१६७.१३) ४. लवलीवन (१६७.१३) ५. गुल्मवन (१६६.२३) ६. लताघर (१६६.२३)। ७. दीर्घिका (१६६.२५) ८. वापी (१६६.२६) ९. कमलाकर (१६६.२६) १०. गुंजालिया (१६६.२६) ११. घर-हंसा (१६६.२६) ____ इनमें से अधिकांश का ग्रन्थ में कई वार उल्लेख हुआ है, जिससे इनको समझने में सहायता मिलती है। उद्द्योतनसूरि के वर्णन के अनुसार गृह-उद्यान के इन अन्य उपादानों का स्वरूप इस प्रकार स्पष्ट होता है : मरकतमणिकोट्टिम-मरकतमणिकोट्टिम का उद्द्योतन ने इन प्रसंगों में उल्लेख किया है। कोशाम्बी नगरी के भवनों के फर्श मणिरत्नों के बनाये गये थे, जिनमें प्रतिविम्ब दिखायी पड़ते थे।' वहाँ के मोर फर्श पर अपना प्रतिबिम्ब देखकर चकित रह जाते थे। लोभदेव तारद्वीप से किसी प्रकार समुद्र के किनारे पहुँचा। वहाँ उसने किनारे के वन में घूमते हुए एक वट-प्रारोह में मरकतमणि से निर्मित फर्श देखा, जिस पर अनेक पुष्पों से रेखाएँ बनायी गयीं थीं (७०.२२)। सौधर्म स्वर्ग में माणिक्यों का फर्श चमक रहा था-(६२.१५) । कुमार ने भवन-उद्यान में मरकतमणिओं के फर्श पर पुष्पों का रेखांकन देखा (१६६. २१)। इन उल्लेखों से ज्ञात होता है कि तत्कालीन भवनों के फर्श मणियो से वनाये जाते थे तथा मनोरंजन के स्थानों पर भी मणि-फर्श बनाये जाने की प्रथा थी। आधुनिक भवनों में चिप्स के फर्श मणिकोट्टिम का अाधुनिक रूप कहा जा सकता है। __ कदलीगृह-कदलीगृह उद्यान में केलों के वृक्षों से बनी हुई एक कुटी होती थी, जहाँ राजकुल के लोग विश्राम किया करते थे। उद्द्योतन ने कदली-गृह के पास चंपकवीथि और लवंगवन के होने का भी संकेत दिया है (१६७.१३)। गुल्मवन एवं लतागृह–अनेक नागवल्ली की लताओं से घिरे हुए प्रदेश को गुल्मवन कहा जाता था, जिसके बीच में अनेक छिद्रों वाला लतागृह होता था। लतागृह लवंग, वकुल एवं ऐला की लताओं के बनते थे, जहाँ ठंडक पाने के लिए कामाग्नि से पीड़ित व्यक्ति वार-बार जाना चाहते थे (१६५.१४) । - गहदीपिका - दीपिका शब्द का प्रयोग उद्द्योतन ने ग्रास्थानमण्डप तथा भवन-उद्यान के सन्दर्भ में किया है। कोशाम्बी नगरी के महा-आस्थानमंडप १. हम्मिय-तलेसु जम्मि य मणि-कोट्रिम-विप्फुरत-पडिबिंबा । पडिसिहि-जायासंका सहसा ण णिलेंति सिहिणो वि ॥-३१.२४ उवगया एक्कं अणेय-णाय-वल्ली-लया-संछण्णं गम्म-वण-गहणं । ताणं च मज्झे एक्कं अइकडिल्ल-लवली-लयाहरयं ।-(१६६.२३)
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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