SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५० कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन अपभ्रश बोलने का प्रचार था, जो यदाकदा साहित्यिक प्राकृत से प्रभावित होती रहती थी। डा० ए० एन० उपाध्ये ने कुव० में प्रयुक्त अपभ्रश के गद्यांशों का तुलनात्मक अध्ययन हेमचन्द्र के व्याकरण में दिये गए अपभ्रश के उदाहरणों से किया है। डा० उपाध्ये का मत है कि उद्योतनसूरि द्वारा प्रयुक्त अपभ्रंश प्रायः हेमचन्द्र के नियमों का अनुसरण करती है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि दोनों उद्द्योतनसूरि और हेमचन्द्र एक ही भाषा के क्षेत्र से सम्बन्धित थे और दोनों का अध्ययन भी एक ही परम्परा में हुआ था।' पैशाची-कुव० में पैशाची भाषा का उपयोग करने की सूचना ग्रन्थकार ने प्रथम ही दे दी है (पेसाय भासिल्ला ४.१३)। क्योंकि ग्रन्थकार जानता था, कथा में कुछ ऐसे प्रसंग व चरित्रों का वर्णन आयेगा जिनकी स्वाभाविकता के लिए उनकी भाषा में ही उन्हें प्रस्तुत करना पड़ेगा। उद्द्योतन की यह भाषात्मक उदारता है कि उन्होंने अपने समय में बोले जानेवाली प्रायः सभी भाषाओं व वोलियों का ग्रन्थ में उपयोग किया है। उनके सम्बन्ध में विशेष जानकारी प्रस्तुत की है, जिससे मध्यकालीन भारतीय भाषाओं के अध्ययन में पर्याप्त सहायता मिल सकती है। ग्रन्थ में पैशाची भाषा के चार सन्दर्भ प्राप्त होते हैं। प्रथम, मथुरा नगरी के अनाथ आश्रम के निवासियों की बातचीत (५५.१५)। द्वितीय, ग्राम-महत्तरों द्वारा मित्रद्रोह जैसे पाप के प्रायश्चित्त के लिए बतलाये गये विभिन्न उपाय (६३.१८.२०, २२.२५) । तृतीय, रमणीक वस्तुओं का वर्णन करते हुए पिशाच तथा चतुर्थ, मठ के छात्रों की कुमारी कुवलयमाला के सम्बन्ध में की गयी बातचीत (१५१.१८)। इन प्रसंगों में पैशाची के अनेक शब्द प्रयुक्त हुए हैं । यथा-लप्पिप्यते, एतं, नती, उय्यान, नकर, पुथवी, कतरो, पतेसो, रमनिय्यो, कुसुमोतर, रमनो, तितस, भोति, विविथ, यति, सुनेसु, मथुकर, वथ (७१.१०, २४) इत्यादि। कुवलयमाला के उक्त पैशाची भाषा से सम्बन्धित सन्दर्भो का श्री एल० बी० गांधी, श्री ए० मास्टर,३ श्री एफ० बी० जे० क्यूपर एवं डा० ए० एन० उपाध्ये, f. It can safely be said that the Apabhramsa used by Uddyotana is duly covered by the rules given by Hemchandra, and this is but natural, because both of them hail from nearly the same linguistic area and belong to the same tradition of learning, -Journal of the Oriental Research Institute, No. MarchJune' 1965. २. भणियमाणेण-पिसाएण णियय-भासाए-वही, ७१.९. ३. जर्नल आफ द रायल एशि० सोसाईटी १९४३, पृ० २१७. ४. जर्नल आफ द ओरियण्टल इन्स्टीटयूट, मार्च-जून, ६५.
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy