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________________ २४९ भाषाएँ तथा बोलियाँ कुछ अपभ्रश के पद्य ऐसे भी हैं जो गद्य के साथ आये हैं । यथा किंच भण्णउ । सव्वहा खलु असुइ जइसउ......." तहे सो वि वरउ किं कुणउ अण्णहो ज्जि कस्सइ वियारू । खलो घई सई जे-बहु-वियार-भंगि-भरियल्लउ ।-(६.९) गद्य-ग्रन्थ में ऐसे अनेक अपभ्रश-गद्यांशों का उपयोग हुआ है, जिनसे अपभ्रश के लक्षण आदि पर भी प्रकाश पड़ता है। ये गद्यांश प्रायः प्राकृत वर्णन आदि के प्रसंग में उपलब्ध होते हैं, जिनमें कहीं-कहीं पद्य भी प्राप्त होते हैं । प्रमुखतः दुर्जनवर्णन (५.२७), सज्जनवर्णन (६.१५), अश्ववर्णन (२३.१३), रगडासन्निवेशवर्णन (४५.१७), अवन्ती और उज्जयिनी वर्णन (५०.३,१२४-२८), काशी एवं वाराणसीवर्णन (५६.२१), कोशलवर्णन (७२.३१), पल्लिवर्णन (११२.९ १२ १४.१६, २१.२४), ग्रीष्मवर्णन (११३-६,८, १०.१२, २१.२४), अकाल वर्णन (११.२०), विन्ध्यवर्णन (११८.१६), नर्मदावर्णन (१२१.१), सार्थवर्णन (१३४.३३), रत्नपुरीवर्णन (१४०.२), पावसवर्णन (१४७.२४), विजयपुरीवर्णन (१४६.६) इत्यादि प्रसंगों में अपभ्रंश भाषा के अनेक वाक्य एवं शब्द प्रयुक्त हुए हैं। जैसे कि बरउ (६.६), वियारु (६.९), जारज्जायहो, दुज्जणहो (६.११), सज्जणु, कमलु, पुणि (६.२२), देंतहों (६.२२), मुत्ताहारु, जइसउ (६.२३), देसु (२३.९), चोरु जइसनो (२३.१४), रेहरु (४५.१८), मेहलउ (५०.१७), देवकुलेहिं (५६.२२), मंडणइ (५६.२७), गामाई (७२.३१), तुंगई (७२. ३५), थूरिएल्लय, मारिएल्लय, बुत्थेल्लय (११२.१२), छेज्जइ (११२.१६), बंभणु (११२.२१) जुण्ण-घरिणियओ, जइसियओ (११३.२४), ओसिहीसु, उयरेसु (११७.२०), कइसिया (११८.१६), विवणि-मग्गु (१२४.२९), कमलइ (१२४.३१), मरूदेसु, हर-णिवासु (१३४.३३), कुभरावणु (१३५.१), भट्टियागहणइं (१४७.२८), धवलहरु (१४६-६) इत्यादि । उपर्युक्त प्रसंगों में जो अपभ्रश प्रयुक्त हुई है, यद्यपि शब्दों और स्वरूप की दृष्टि से तो वह प्राकृत है, किन्तु सामान्यतः अपभ्रंश के लक्षण उसमें अधिक मिलते हैं। इससे यह प्रतीत होता है कि साहित्यिक प्राकृत पर अपभ्रश का प्रभाव बढ़ता चला जा रहा था। उद्योतनसूरि के समय में अपभ्रंश एक साहित्यिक भाषा बन चुकी थी और उसका सम्बन्ध स्टैन्डर्ड प्राकृत की अपेक्षा बोलचाल की भाषा से अधिक था। सम्भवतः प्रथम बार उद्योतनसूरि ने अपभ्रंश भाषा के इतने गद्यांशों को एक साथ उपस्थित किया है, जो अपभ्रंश के स्वरूप को स्पष्ट करते हैं। राजा अपभ्रश में सेनापति को सम्बोधन करता है, ग्रामनटी अपभ्रश का गीत गाती है एवं गुर्जरपथिक अपभ्रश का दोहा पढ़ता है। ये प्रसंग इस बात की ओर इंगित करते हैं कि उद्योतनसूरि के समय में समाज के प्रायः सभी वर्गों में
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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