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________________ धातुवाद एवं सुवर्ण सिद्धि २२१ किन्तु लोक में इन सबको धातुवादी ही कहा जाता था ।' यद्यपि तीनों के कार्य अलग-अलग थे। क्रियावादी योग साधना के द्वारा स्वर्ण वनाते थे। जो चतुराई पूर्वक पारा आदि रस को बाँधते थे वे नरेन्द्र कहलाते थे और जो धातुओं को लेकर पर्वत की गुफाओं में अग्निकर्म आदि करके स्वर्ण बनाते थे उन्हें धातुवादी कहा जाता था (१९७,३०.३१) । इनके भी अनेक भेद हैं। क्रियाएँ कई प्रकार की हैं-अर्धक्रिया, उत्कृष्टक्रिया, कष्ट-क्रिया, रसक्रिया, धातुमूलक्रिया आदि । नाग, गंध, तांबा, हेम, यवक्षार, सीसा, पु, कांसा, रुपया, स्वर्ण, लोह, क्षार, सूचक-कुनड़ी, ताल, नागिनी, भ्रमर आदि भेद से नरेन्द्रों के कई भेद हैं। और धातुवादियों का वर्णन तो इतना विस्तृत है कि उसका वर्णन करना वड़ा मुश्किल है (१९८.१, ५) । उद्योतन द्वारा प्रस्तुत धातुवाद का उपर्युक्त विस्तृत विवरण इस बात का प्रतीक है, प्राचीन भारत में धातुवाद काफी प्रसिद्ध रहा होगा । स्वर्ण को शुद्ध करने की प्रक्रिया प्राचीन भारत में बहुत पहले से प्रचलित थी। उसी का विकसित रूप यह धातुवाद है । धातुवाद में केवल स्वर्ण धातु को ही शुद्ध नहीं किया जाता था, अपितु विभिन्न धातुओं को अनेक मसालों के संयोग से स्वर्ण में परिवर्तित कर लिया जाता था । धातुवाद को नरेन्द्रकला (कु० १९७.१६) तथा धातुवादियों को नरेन्द्र कहा जाता था । जात्यस्वर्ण कुव० में धातुवाद के अतिरिक्त जात्यस्वर्ण एवं स्वर्णसिद्धि का भी वर्णन आया है। स्वर्ण तैयार करने की एक भिन्न प्रक्रिया थी। जात्यस्वर्ण उसे कहा जाता था, जो मैल सहित कच्ची धातु से विशेष विशुद्धीकरण की प्रक्रिया द्वारा शुद्ध किया जाता था। ग्रन्थ में जात्यस्वर्ण से नारकीय जीवों की ताड़न आदि क्रियाओं को तुलना की गयी है, जो स्वर्ण को शुद्ध करने की प्रक्रिया पर प्रकाश १. किरियावाइ णरिंदा धाउव्वाई य तिणि एयाई । लोए पुण सुपसिद्धं धाउव्वाई इमे सब्वे ॥-कुव० १९७.२९. २. We get some details about Dhatuvada i. e., the art of making artificial gold, being practised in a secluded part the Vindhya forest.......It appears that one of the epithets of the Dhātuvādins was Narendra, meaning a master of charms or antidotes. The word is also used in this sense in classical Sanskrit literatur. Dhātuvāda is also called Narēndra-kala. -Kuv. Int. p. 127. ३. अणेय कम-च्छेय-ताडणाहोण-घडण-विहडणाहिं अवगय-बहुकम्म-किट्टस्स जच्च सुवणस्स व-कुव० २.२.
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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