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________________ २२० कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन प्रयोग-प्रक्रिया-उक्त उपकरण एकत्र हो जाने पर भी हर कोई धातुवाद का प्रयोग नहीं कर सकता था। क्योंकि विभिन्न धातुओं और औषधियों में अग्नि लगा देने से जब वे जलने लगती थीं तो उनसे निकलती हुई ज्वाला का सही-सही ज्ञान करना बड़ा कठिन था। ज्वाला के विभिन्न रंगों की पहचान के द्वारा ही प्रयोग सफल होगा या नहीं इसकी जानकारी की जाती थी। ज्वाला के लक्षण इस प्रकार थे-ज्वाला यदि रक्तवर्ण हो तो ताँबा, पीली हो तो स्वर्ण, श्वेत हो तो रजत, काली हो तो लोहा एवं प्रभावहीन हो तो कांसा उत्पन्न होता है।' जव ज्वाला प्रखर एवं शोभायुक्त हो तभी उस प्रयोग के द्वारा स्वर्ण की प्राप्ति होती है । कोमल और तेजहीन ज्वाला से कुछ हाथ नहीं लगता ।' ज्वाला लक्षण द्वारा ज्वाला विशेष को जानकर कुशल नरेन्द्र सत्व विशेष को हाथ में लेकर, इष्टदेव को नमस्कार कर, परिपाकचर्ण को ग्रहण कर, सिद्धों और जोणीपाहुड (नामक विद्या) के सिद्धों को प्रणाम करते हुये कुडि के मुख में (मुसा-मुहम्मि) परिपाकचूर्ण को डालते थे। चूर्ण डालते ही कुंडी जलने लगती थी और जैसे ही वह सीधी होतो निषेक करने योग्य पदार्थों का उसमें सिंचन किया जाता। थोड़ी ही देर बाद वहाँ का प्रदेश चमकने लगता और स्वर्ण तैयार हो जाता था। प्रयोग में असफलता एवं सफलता-धातुवाद का प्रयोग करने में सभी सफल नहीं होते थे। इसके लिए विद्या में कुशलता एवं बड़ी साधना की जरूरत होती थी। जो व्यक्ति सत्वरहित, अपवित्र, अब्रह्मचारी, तृष्णायुक्त, मित्र को ठगनेवाला, कृतघ्न, देवताओं को न माननेवाला, मंत्ररहित, उत्साह रहित, गुरु-निन्दक तथा श्रद्धारहित हो वह धातुवाद में कभी सफल नहीं हो सकता (१६७.२२, २४) । जो इन दोषों से रहित हो तथा गुरु और देवों का आराधक हो वह नरेन्द्र पर्वत को भी स्वर्ण वना सकता है। तीन प्रकार के प्रयोगवादी-स्वर्ण बनाने का प्रयोग करनेवाले व्यक्ति तीन प्रकार के होते थे :---(१) क्रियावादी, (२) नरेन्द्र और (३) धातुवादो। १. तंबम्मि होइ रत्ता पीता कणयम्मि सुक्किला रयए । लोहे कसिणा कंसम्मि णिप्पभा होइ जालाओ ॥-कुव० १९५.१४. २. जइ आवट्टं दव्वं ता एसा होइ अहिय रेहिल्ला।। अह कहवि अणावट्टो स च्चिय मउया य विच्छाया ॥-वही १९५.१५. ३. जाणिऊण जाला-विसेसं कुमारेण-अवलंविऊण सत्तं-पणमिया सिद्धा, गहियं तं पडिवाय-चुण्णं अभिमंतियं च इमाए विज्जाए। अवि य णमो सिद्धाणं णमो जोणी-पाहुड-सिद्धाणं इमाणं । इमं च विज्ज पढ़तेण पक्खितं मूसा-मुहम्मि, धग ति य पज्जलिया मूसा ओसारिया य, णिसित्ता णिसेएण थोब-वेलाए णियच्छियं जाव विज्जु-पुंज-सच्छयं कणयं ति ।-कुव० १९६.३०,१९०.१. ४. जे गुरु-देवय-महिमाणुतप्परा सयल-सत्त-संपण्णा। ते तारिसा णरिंदा करेति गिरिणो वि हेममए ॥--कुव० १९७-२७.
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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