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________________ २१० कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन व्यापारी समुद्रयात्रा से सकुशल वापस नहीं लौटता। यह अकारण नहीं हुआ। प्रथम तो आठवीं सदी में जलयात्रा की कठिनाइयों को देखते हुए जहाज-भग्न होना स्वाभाविक भी हो सकता है। दूसरे, कुव० में उद्योतनसूरि का प्रयत्न यह रहा है कि जीवन की प्रत्येक घटना को आध्यात्मिक प्रतीक बनाकर प्रस्तुत किया जाय। जैसे उन्होंने अर्थोपार्जन के साधनों को धामिक रूप दिया, उसी प्रकार जलयात्रा में जहाजभग्न का भी उन्होंने सुन्दर रूपक प्रस्तुत किया है। भिन्नपोतध्वज-कुव० में एक ऐसे प्रसंग का वर्णन आया है जिसमें एक ही द्वीप पर तीन सार्थवाह जहाजभग्न हो जाने से अलग-अलग भटककर एकत्र होते हैं । पाटलिपुत्र से रत्नद्वोप को जाते हुए धन नामक व्यापारी का जहाज रास्ते में टूट जाता है। वह एक फलक के सहारे किसी प्रकार कुडंगद्वीप में जा लगता है। वह द्वोप अनेक हिंसक पशुओं से युक्त था तथा वहाँ के फल कड़वे थे। मनुष्य से निर्जन था। वहाँ भटकते हुए धन एक दिन किसी अन्य पुरुष को देखता है। पूछने पर ज्ञात हुआ कि वह व्यापारी स्वर्णद्वीप को जाते समय, जहाजभग्न हो जाने के कारण यहाँ आ लगा है। अब वे दोनों वहाँ भटकने लगे । एक दिन उन्होंने किसी तीसरे पुरुष को देखा, जो लंकापुरी को जाते समय वहाँ पा लगा था। तीनों समान दुःख का अनुभव करते हुए वहाँ अपना समय काटने लगे। उन्होंने सलाह कर एक ऊँचे वृक्ष पर 'भिन्नपोतध्वज' के रूप में बल्कल (चिथड़े) टांग दिये। वे तीनों यात्री वहाँ किसी ऐसे पेड़ की तलाश में थे जिसके फल मधुर हों, किन्तु उन्हें निराश होना पड़ा। उन्हें वहाँ कादम्बरी के वक्ष मिले, जिनमें फल नहीं थे। कुछ समय बाद उन वृक्षों में फल आना शुरू हुए, जिनकी ये बड़ी प्रतीक्षा से रक्षा करने लगे। इसी समय किसी सार्थवाह को नजर वृक्ष पर लटकते भित्रपोतध्वज पर पड़ी। करुणावश उसने अपना जहाज समुद्र में रुकवाकर दो नियामकों को नौका लेकर इन तीन भटके यात्रियों के पास भेजा। नियामकों ने उन व्यापारियों से जहाज पर चलने के लिए कहा। उनमें से दो तो काम्दवरी फलों की आशा से वहीं पर रह गये और एक व्यापारी उन निर्यामकों के हाथ जहाज में आ गया, जहाँ उसे सब दुःखों से छुटकारा मिल गया।' धार्मिक रूपक - 'भिन्नपोतध्वज' के द्वारा यह जानकर कि यहाँ भटके हुए यात्री रुके हुए हैं उनको तट तक ले जाने का कार्य उस रास्ते से गुजरनेवाला जहाज अवश्य करता था। भारतीय साहित्य में अनेक ऐसे उदाहरण हैं। किन्तु १. अत्थि पाडलिपुत्तं णाम णयरं....सम-दुक्ख-सहायाणं मेत्ति अम्हाणं-८८-८९, ७. २. ता एत्थ कहिचि तुंगे पायवे भिण्ण-वहण-चिंधं उब्भेमो। 'तह' ति पडिवज्जिऊण उब्भियं वक्कलं तरुवर-सिहरम्मि। -वही ८९.७, ८. ३. आरूढो य दोणीए । गया तडं । तत्थ...सुह अणुहवंति, ८९.२७.
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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