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________________ समुद्र-यात्राएँ २०९ कर लो । अन्यथा तुम सब मारे जाओगे। किन्तु यह सब करने के पूर्व ही अन्धाधुन्ध मेह बरसने लगा । जहाज में लदे माल एवं मेघ के पानी के भार से जहाज समुद्र में डूब गया। धमधमेन्त मारुत-लोभदेव के जहाज को डुबाने के लिए भद्रश्रेष्ठी के जीव राक्षस ने धमधमेन्तमारुत को उत्पन्न कर समुद्र में तूफान मचा दिया। पानी बरसने लगा, ओले पड़ने लगे, उल्कापात होने लगा, बड़वानल जलने लगा, सर्वथा प्रलयकाल का दृश्य उपस्थित हो गया। इस प्रसंग में उल्लिखित धमधमेन्तमारुत सम्भवतः वह कालिकावात है, जो समुद्र-यात्रा के लिए बड़ी भयंकर मानी गयी है। आवश्यकचूर्णिकार का कथन है कि यदि यह कालिकावात न चले, गर्जभवायु चले तभी जहाज गन्तव्य तक पहुँच सकता है। ___ इष्ट देवताओं का स्मरण-कुव० में समुद्री तूफान के समय यात्रो अपनेअपने इष्ट देवताओं का स्मरण करते हैं (६८.१७-१८)। राक्षस द्वारा समुद्र में तूफान पैदा करना एवं यात्रियों द्वारा इष्ट देवताओं का स्मरण करना प्राचीन भारतीय साहित्य में धीरे-धीरे एक अभिप्राय (motif ) के रूप में प्रयुक्त होने लगा था । जायसी के पद्मावत (३८९.९०, दोहा) में भी इसी प्रकार का वर्णन है। ऐसे संकट के समय समुद्र को रत्न चढ़ाये जाते थे । काठियावाड़ में समुद्रतट पर अग्नि जलाने तथा समुद्र को दूध, मक्खन और शक्कर चढ़ाने की प्रथा थी। कुव० में सार्थपुत्र इस संकट से बचने के लिए भीगे कपड़े पहिन कर हाथ में धप की कलुछो लेकर लोक-देवताओं को आहुति देकर मनाता है। जहाज का भग्न होना-प्राचीन भारतीय साहित्य में प्रायः जहाज भग्न के उल्लेख मिलते हैं। किन्तु कुव० के वर्णनों की यह विशेषता है कि इसमें समुद्रयात्रा के जितने सन्दर्भ हैं, सभी में जहाजभग्न होने का उल्लेख है। कोई भी १. तत्थ पंजर-पुरिसेण उत्तरदिसाए दिटुं एक्कं सुप्पपमाणं कज्जिल-कसिण-मेह पडलं । तं च दठूण भणियमणेण""एयं मेह-खंडं सव्वहा ण सुंदरं ता लंबेह लंबणे, मउलह सेयवडं, ठएह-भंडं, थिरीकरेह जाणवत्तं । अण्णहा विणट्ठा तुब्भे । -वही १०६.६, ९. २. अंधारिय-दिसियक्कं पिज्जुज्जल-विलसमाण-घण-सह। मसल-सम-वारि-धारं कुविय-कयंतं व काल-घणं ॥--१०६.११. ३. सहसच्चिय खर-फरुसो उद्धावइ मारुओ धमधमेंतो। सव्वहा पलय-काल भीसणं समुद्धाइयं महाणत्थं ॥-६८.१३, १६. ४. मो०-सा०, पृ० १७०. ५. उ०-कुव० इ०, पृ० १२० पर उद्धृत । ६. कथासरितसागर, पेन्जर, जिल्द ७, अध्याय १०१, पृ० १४६. ७. सत्थवाहो उण अदण्णो अद्द-पड-पाउरणो धूय-कडच्छुय-हत्थो विण्णवेउं पयत्तो.... संपयं पसायं पेच्छिमो। -६८.२० ८. कुव० ६९.५, ८९.३२, १०६.८, १२, १९१.१३, १६ आदि । . १४
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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