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________________ १७४ कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन मद्यपान से उत्पन्न रोग-दर्पफलिक की सौतेली माँ, मन्त्री एवं वैद्य ने मिलकर उसे ऐसी दवाइयों का योग उसकी सुरा में मिलाकर दे दिया, जिसे पीनी से कालान्तर में मरण अवश्यम्भावी था। उस योग से दर्पफलिक की स्मति जाती रही-वियंभिडं पयत्तो मज्झ सो जोरो-। वह पागलों जैसी हरकतें करता हुआ राज्य से निकल गया। घूमता हुआ जब वह विन्ध्यपर्वत की कन्दरामों में पहुँचा तो उसने बेल, सल्ल, तमाल, हरी, बहेड़ा, आवला आदि के पत्तों, फलों से युक्त झरने के कषाय पानी को पीलिया और छाया में विश्राम करने लगा। थोड़ो देर बाद समुद्र की तरंगों की तरह उसका पेट गुडगुड़ाने लगाउदरब्भतरो जाओ (१५४-१२)। एवं विरेचन हो गया। उसने बार-बार पानी पिया और हर बार वमन हो गया। और इस प्रकार उसकी बीमारी दोषमुक्त हो गयी-सव्व दोसक्खनो जाओ। उसे सब बातें स्मरण हो आयीं और वह पहले जैसा स्वस्थचित्त हो गया-सव्वहा पढमं पिव सत्थचित्तो जाओ(१४५-१५) । चिकित्साशास्त्र में विरेचन द्वारा स्वास्थ्य लाभ करना अति प्रसिद्ध निदान है। सर्पदंश का निदान-उद्योतनसूरि ने दुर्जनों का वर्णन करते हुए कहा है कि दुर्जन काले सर्प से भी भयंकर होते हैं। क्योंकि काले सर्प के काटने पर उसका विष उदर की सफाई के वाद नष्ट किया जा सकता हैं-सव्वहा पोट्टण च कसइ (६.४)। किन्तु दुर्जन के काटने का कोई इलाज नहीं। विष को मन्त्रों के द्वारा रसायण भी बनाया जा सकता है--महुरं मंतेहि च कीरइ रसायणं (६.५)--किन्तु दुर्जन के मुख में हमेशा कटुता ही बनी रहती है । कु० में अन्यत्र भी सर्प के विष की औषधि विषरसायण को ही माना गया है। कामज्वर से पीड़ित व्यक्ति की व्याधि काम सेवन से ही दूर होती है। क्योंकि विष की औषधि विष ही है। सर्पदंश के लिए गरुड़-मन्त्रों का जाप गुणकारी माना जाता था (२३६.१४)। रोगों के निदान के लिए वैद्य अनेक प्रकार की क्रियाएँ करते थे, जो रोग को उसी प्रकार हर लेती थीं जैसे जिनेन्द्र भगवान् जीवों के दुःखों को दूर कर देते हैं ।३ वैद्यकशास्त्र के प्रणेताओं में धनवन्तरि के सदृश महावैद्य राजा दृढ़वर्मन् की सभा में आयु-शास्त्र का विवेचन करते थे। समाज में वैद्य की पर्याप्त प्रतिष्ठा थी । यह मान्यता थी कि किसी रोगी के निदान के लिए वैद्य को १. संजोइयं जोइयं, कालंतर-विडवणा-मरण-फलं दिणं च मज्झपाणं-कुव० १४४,३०. २. जो किर भुयंग- डक्को-डंके अह-तस्स दिज्जए महुरं। एसा जणे पउत्ती विसस्स विसमोसहं होइ ॥ -कुव० २३६.३. ३. जह आउराण वेज्जो दुक्खविमोक्खं करेइ किरियाए। तह जाण जियाय जिणो दुक्खं अवणेइ किरियाए ॥ १७९.१९ ४. उग्गाहेंति आउ-सत्थं धण्णंतरि-समा महावेज्जा-१६.२०.
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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