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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-23
एक बात और - आज इन्द्र सभा में मेरी प्रशंसा सुन एक देव कौतुहलवश मेरी परीक्षा करने यहाँ आया है, जो इस गिद्ध के शरीर में प्रवेश करके मनुष्य की भाषा में कबूतर माँग रहा है।
राजा ने कहा – गिद्ध के शरीर में स्थित हे देव ! सुन तेरी यह माँग अनुचित है । कबूतर वह कोई भक्ष्य नहीं है और न दान देने की वस्तु है। मांसादि अभक्ष्य वस्तुओं का दान धर्म में निषिद्ध है । माँस भले अपने शरीर का हो तब भी वह दान देने योग्य वस्तु नहीं है तथा गिद्ध आदि मांसभक्षी जीव दान देने के लिये पात्र भी नहीं है। हाँ ! पूर्वकाल में कबूतर के बदले अपने शरीर का माँस दान में देने वाले एक अज्ञानी राजा की कथा लोगों में प्रसिद्ध है, परन्तु वह बात धर्म सिद्धांत में मान्य नहीं है तथा वह राजा
और वह दान प्रशंसनीय नहीं है। अरे ! क्या माँस का दान दिया जाता है ? नहीं ! वह तो पाप है, हिंसा है अविवेक है, लेने तथा देने वाले दोनों के लिये दुर्गति का कारण है।
तब गिद्ध के शरीर में स्थित वह देव प्रगट होकर राजा की स्तुति करके अपने स्थान पर चला गया। गिद्ध कबूतर के जीव भी मेघरथ राजा का उपदेश सुनकर अत्यन्त प्रभावित हुए और धर्म के संस्कार सहित शरीर त्यागकर व्यन्तर देव हुए। उन दोनों देवों ने आकर उपकार माना
और “आपकी कृपा से हम तुच्छ तिर्यंच पर्याय से छूटकर व्यंतर देव हुए हैं" - ऐसा कहकर वे भी अपने गंतव्य को चले गये।
शील-संयम की परीक्षा - राजा मेघरथ ने एकबार पर्व तिथि में प्रोषधोपवास किया था, दिनभर आत्मसाधना में रहकर रात्रि के समय एकान्त उद्यान में जाकर वे धर्मात्मा ध्यान में स्थित हुए।
इन्द्रसभा में इन्द्र ने राजा मेघरथ की प्रशंसा में कहा- अहो ! उन महात्मा को धन्य है ! इस समय वे मेरू समान अचल दशा में आत्मध्यान कर रहे हैं उनका शीलगुण भी अद्भुत है, उन्हें नमस्कार हो !