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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-23 67 पर्याय में विवेकी होकर कषाय शांत की तो देवगति मिली। अतः कभी भी कषाय का कारण बनने पर भी कषाय नहीं बढ़ाना चाहिये, बल्कि ज्ञान बढ़ाकर कषायों को मंद-मंदतर-मंदतम करते हुए नष्ट ही करना श्रेयस्कर है। दो मुर्गों की कथा सुनाने के बाद मेघरथ ने दिव्यज्ञान से जानकर कहा कि इस समय इस राज्यसभा में दो विद्याधर भी गुप्त रूप से मुर्गों के भवों की बात सुन रहे हैं। यहाँ आये हुए दोनों विद्याधर चरमशरीरी हैं तथा हे पिता महाराज! जब आप पूर्वभव में ऐरावतक्षेत्र में अभयघोष राजा थे, तब यह दोनों विद्याधर आपके पुत्र थे। मेघरथ की बात पूर्ण होते ही दोनों विद्याधर प्रसन्नता सहित प्रगट हो गये और अत्यन्त आदर सहित अपने पूर्वभव के पिताश्री के दर्शन किये। उन्हें जातिस्मरण ज्ञान हुआ, कुल, संसार से विरक्त होकर उन्होंने जिनदीक्षा ग्रहण की ओर केवलज्ञान प्रगट करके मोक्षपद को प्राप्त हुए। । अचानक दो देव दिव्य विमान लेकर वहाँ आये और मेघरथ को दिव्य वस्त्राभूषणों की भेंट देकर कहने लगे - हे नाथ ! पूर्वभव 'में हम दोनों मुर्गे थे और अब व्यंतर देव हुए हैं। आपके उपकार का स्मरण करके हम आपकी सेवा करने आये हैं, आप हमारे देव विमान में विराजो, हम आपको ढाईद्वीप की यात्रा करायेंगे। मेघरथ कुमार ने देवों की बात स्वीकार कर सपरिवार ढाई द्वीप की वंदना की और सकुशल वापस आ गये। सज्जन पुरुष अपने ऊपर किये गये उपकार को नहीं भूलते और फिर अन्य उपकारों की अपेक्षा धर्म का उपकार तो सर्वश्रेष्ठ है। महाराज घनरथ को संसार से वैराग्य जाग्रत हुआ, उन्होंने मेघरथ को राज्य सौंपा और स्वयं वन में जाकर जिनदीक्षा धारण की।
SR No.032272
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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