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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-23
रहा और मौका पाकर उसने एक दिन चंदनबाला का सिर मुडवाकर उसे एक कोठरी में बंद कर दिया। .
इस बात से हमें यह शिक्षा सदा याद रखनी चाहिए कि वास्तव में कोई भी परद्रव्य, पर-व्यक्ति या द्रव्यकर्म का उदय हमें दुःखी नहीं करता। हमारा भावकर्म ही हमें दुःखी करता है। अतः हमें परद्रव्य से राग-द्वेष करके कषाय नहीं बढ़ाना चाहिए, कर्मोदय के फल को ज्ञाता स्वभाव के जोर से समतापूर्वक भोगते हुए उनकी निर्जरा करनी चाहिए। यह नहीं भूलना चाहिए कि जबतक कुल्हाड़ी में लकड़ी का बैंट नहीं डलता, तबतक वह वृक्षों को काटने में समर्थ नहीं होती। इसीप्रकार जबतक हमारे कर्मों का उदय नहीं होता, तबतक कोई भी परद्रव्य हमें कष्ट देने में निमित्त भी नहीं होता और उस कर्म के उदय या परद्रव्य से हम न जुड़े तो वह निमित्त भी नहीं कहलाता।
उपलक्षण से यह भी समझ लेना चाहिए कि दुःख की भांति सुख, जीवन, मरण भी कोई किसी अन्य का नहीं कर सकता है; क्योंकि ये सभी कर्मोदय से होते हैं और कर्म कोई किसी को दे नहीं सकता। आचार्य कुंदकुंद स्वामी ने समयसार के बंध अधिकार की गाथा क्र.स 247 से 267 में कहा भी है, जिसका डॉ. हुकमचंद भारिल्ल कृत पद्यानुवाद इसप्रकार है -
मैं मारता हूँ अन्य को या मुझे मारें अन्यजन । यह मान्यता अज्ञान है जिनवर कहें हे भव्यजन !247 निज आयु क्षय से मरण हो यह बात जिनवर ने कही। तुम मार कैसे सकोगे जब आयु हर सकते नहीं ?248 निज आयुक्षय से मरण हो यह बात जिनवर ने कही। वे मरण कैसे करें तब जब आयु हर सकते नहीं ?249 मैं हूँ बचाता अन्य को मुझको बचावे अन्यजन । यह मान्यता अज्ञान है जिनवर कहें हे भव्यजन !250