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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-23 प्रिय पुत्री कहाँ गई ? अन्त में उदास होकर एक वृद्ध दासी से पूछा - बहिन, तुम्हें मालूम है चन्दना कहाँ है ? तुम सब उदास क्यों हो ? कुछ बोलते क्यों नहीं ? दासी ने कोई उत्तर तो नहीं दिया, परन्तु सेठ की ओर देखकर सिसकने लगी। उसकी आँखों से आँसू गिरने लगे....एक गहरा निःश्वास छोड़कर कोठरी की ओर संकेत करके वह चली गई।
सेठ ने तुरन्त कोठरी की खिड़की के पास जाकर देखा तो भीतर चन्दना दिखाई दी....बाहर से ताला लगा हुआ था। चन्दना का मुड़ा हुआ सिर और हाथ-पाँव में पड़ी हुई बेड़ियों को देखकर सेठ से रहा नहीं गया....वे करुण चीत्कार कर उठे - अरे बेटी चन्दना! तेरी यह दशा!
और फिर भी मुँह से आह तक नहीं करती ? अरे, किस दुष्ट ने तेरी यह दशा की है ?
चन्दना कुछ बोली नहीं, मात्र स्नेहपूर्ण नेत्रों से सेठजी की ओर देखती रही....मानों उसके अमृत झरते नेत्र उनसे शान्त भाव रखने को कह रहे हों। __सेठजी ने तुरन्त कोठरी का द्वार खोलने और बेड़ियाँ काटने के लिये स्वयं ही लुहार को बुलाने दौड़े।
सेठजी के आने से तीन दिन की उपवासी चन्दना विचारने लगीयदि महावीर प्रभु पधारें तो मैं उन्हें आहार देकर ही पारणा करूँगी। - ऐसी अन्तरंग भावना भा रही है और यदि जीव की भावना सच्ची हो तो उसका फल भी मिले बिना नहीं रहता....यदि जीव को भावना का फल न मिले तो सारा जगत शून्य हो जाए। जिसे आत्मा.की भावना हो उसे आत्मा की प्राप्ति होती ही है। सच्ची आत्मभावना भाने वाले को यदि आत्मसुख की प्राप्ति न हो तो आत्मतत्त्व ही शून्य हो जाए, उसका अस्तित्व ही सिद्ध नहीं हो । यदि पापी जीव के पापभाव का फल न हो तो नरकगति ही शून्य हो जाए; जीव