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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-23 27 श्री वर्द्धमानमुनि का सती चंदना द्वारा पारणा कर्मोदयानुसार चंदनबाला सेठ वृषभदत्त के घर तक अपने शील सतीत्व को सुरक्षित लिए हुए आ तो गई, पर कौन जानता था कि यहाँ ही उस पर शील भंग करने का आरोप लगाया जायेगा और वही उसे वरदान स्वरूप सिद्ध होगा। वह तो सदा इन सबसे भिन्न अपने स्वरूप की आराधना में ही तत्पर रहती है, वह विचारती है कि “कर्मोदय से व्याकुल हो जाना वह धर्मी जीवों का काम नहीं है;....उस समय भी अपनी धर्मसाधना में आगे बढ़ते रहना ही धर्मात्माओं की पहिचान है। वे जानते हैं कि - जो कर्म के ही विविध उदय विपाक जिनवर ने कहे, वे मम स्वभाव नहीं तथा मैं एक ज्ञायक भाव हूँ। सब जीव में समता मुझे नहिं बैर किसी के संग मुझे, इसलिए आशा छोड़कर मैं करूँ प्राप्ति समाधि की॥" जब सुभद्रा सेठानी का संशय निर्णय में बदल गया तब वह चंदना के कर्म से प्रेरी सेठानी उसे किसी भी तरह अपने रास्ते से हटाने को तत्पर रहती हुई अवसर का इंतजार करने लगी। एक दिन जब सेठ नगर से बाहर गये हुए थे, तब सेठानी ने चन्दना को एकान्त में बुलाकर उसके सुन्दर केश काटकर सिर मुड़वा दिया। अरे, अत्यन्त रूपवती राजपुत्री को कुरूप बना देने का प्रयत्न किया....इतने से उसका क्रोध शान्त नहीं हुआ तो चन्दना के हाथ-पाँव में बेड़ियाँ डालकर उसे एक अन्धेरी कोठरी में बन्द कर दिया, ऊपर से तरह-तरह के कटु वचन कहे; भोजन में भी प्रतिदिन सुबह-सुबह मात्र उबले हुए उड़द और गरम पानी दिया। अरे, , सिर मुडवाकर जिसे बेड़ी पहिना दी गई हो उस सुकोमल निर्दोष स्वानुभवी
SR No.032272
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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