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- जैनधर्म की कहानियाँ भाग-23 श्रीमती भी साथ ही थीं। चलते-चलते राजा वज्रजंघ एक सुन्दर सरोवर के तटपर आये और वहाँ पड़ाव डाला। भविष्य में जो तीर्थंकर होने वाले हैं ऐसे वज्रजंघ का डेरा होने से सारा वन भी मानों प्रफुल्लित हुआ हो - ऐसा शोभायमान हो उठा। स्नानादि के पश्चात् सब भोजन की तैयारी कर रहे थे। -
राजा वज्रजंघ और रानी श्रीमती ने भोजन करने से पूर्व यह भावना भायी कि इस अवसर में यदि कोई मुनिराज पधारते, तो हम प्रथम उनका पड़गाहन करके उन्हें निरन्तराय आहार कराके ही भोजन करते। महापुरुषों की पवित्र भावनाएँ कभी निष्फल नहीं होतीं। वे यहाँ ऐसी भावना भा ही रहे थे कि इतने में अचानक दो गगनविहारी मुनिवर दमधर और सागरसेन वहाँ पधारे। अहा, मुनिवर पधारे मानों साक्षात् मोक्षमार्ग ही आ गया ! आकाश से उतरते हुए मुनिवरों को देखकर ही राजा और मंत्री आदि सबको हर्ष एवं महान आनन्दाश्चर्य हुआ। अरे ! वन के सिंह, बन्दर, शूकर और नेवला जैसे पशु भी मुनिराज को देखकर हर्षित हो उठे।
उन मुनिवरों की वन में ही आहार लेने की प्रतिज्ञा थी। वे अत्यन्त तेजस्वी थे और पवित्रता से शोभायमान थे मानों स्वर्ग और मोक्ष यहीं पृथ्वी पर उतर आये हों। दोनों मुनिवरों को अपने डेरे के निकट आते ही राजा-रानी ने अति आनन्द एवं भक्ति सहित उनका पड़गाहन किया कि 'हे स्वामी ! पधारो.... पधारो.... पधारो।'
श्री मुनिराज के रुकते ही वज्रजंघ और श्रीमती ने भक्तिपूर्वक उनकी प्रदक्षिणा की, नमस्कार करके सम्मान किया और योग्य विधिपूर्वक भोजनशाला में प्रवेश कराके उच्चासन दिया, उनके चरणों। का प्रक्षालन, पूजन एवं नमन किया और पश्चात् मन-वचन-काया की शुद्धिपूर्वक दाता के सात गुण (श्रद्धा, संतोष, विवेक, अलुब्धता