SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/50 बड़ा पुत्र चक्रवर्ती भरत हूँ। मैंने समस्त विद्याधरों, देवताओं और राजाओं को विनत किया है, पृथ्वी मण्डल की परिक्रमा करके दिग्विजय प्राप्त की है।' भरत ने अपनी यशःप्रशस्ति लिखकर ज्योंही उसे दुबारा देखा, तो उनके हृदय में एक उलझा हुआ प्रश्न समाधान पाने को उठ खड़ा हुआ। मैंने आज एक चक्रवर्ती के नाम को मिटाकर अपना नाम लिखा है, तो क्या इसीप्रकार भविष्य का कोई चक्रवर्ती मेरा नाम भी मिटा कर अपना नाम नहीं लिखेगा? इस महाकाल के प्रवाह में कौन अजर, अमर, अविनाशी रहा है ? यह जगत क्षणभंगुर है, चलाचल है, सिद्ध भगवान ही अचल हैं। ..धन्य हैं जेजीव नरभव (5) पाय यह कारज किया! क 4NE दार एक धनवान सेठ के पुत्र की किसी निर्धन पड़ौसी के लड़के के साथ घनिष्ट मित्रता हो गई। दोनों मित्र प्रतिदिन एक-दूसरे से मिलते थे और आपस में बहुत स्नेह रखते थे। ___ निर्धन का पुत्र यद्यपि सेठ के लड़के के पास नित्यप्रति आता रहता था, परन्तु उसके मन में कुछ संकोच अवश्य बना रहता था। सेठ पुत्र इस स्थिति को समझ गया। ___एक दिन उसने अपने मित्र से कुछ लोहा मँगवाया, जिससे वह अपने घर में रखी पारसमणि से उसका सोना बना सके और मित्र की निर्धनता दूर कर सके। उसका मित्र लोहा ले आया तो उसने पिताजी से पारसमणि माँग कर लोहे को छुआ दिया, परन्तु लोहा वैसा का वैसा लोहा ही बना रहा, सोना नहीं बना। सेठ पुत्र को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने सोचा पारसमणि बेकार हो गई, अत: वह पिताजी के पास गया और सब बात सुनाई।
SR No.032264
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy