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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/49 चक्रवर्ती का भी... (4) ...अभिमान गल गया! समस्त भरत खण्ड की दिग्विजय करते हुए चक्रवर्ती भरत वृषभाचल (वृषभ कूट) पर्वत पर पहुँचे। स्फटिक से उज्ज्वल श्वेत प्रस्तरों के गगनचुम्बी ऊँचे शिखर और उन पर पड़ते हुए सूर्य किरणों के प्रतिबिम्ब की विचित्र चमक और मोहक आभा थी। छह खण्ड की दिग्विजय और चक्रवर्तित्व के गर्व स दीप्त भरत की आँखें वृषभाचल की स्फटिक सी श्वेत आभा में अपने निर्मल यश का प्रतिबिम्ब झलकता हुआ देख रही थीं। वे सोच रहे थे मैं पहला चक्रवर्ती हूँ, जिसका नाम यहाँ सबसे ऊपर लिखा जायेगा। ___ चक्रवर्ती पर्वत के श्वेत शिलापट्ट पर अपना नाम अंकित करना चाहते थे। इसके लिए कांकिणी रत्न लेकर ज्योंही उद्यत हुए तो सर्वत्र शिलापट्टों पर हजारों हजार चक्रवर्ती राजाओं के नाम लिखे हुए देख कर चकित से रह गये। ‘क्या इस पृथ्वी पर मेरे जैसे और भी असंख्य चक्रवर्ती राजा हो गये हैं ? इस पर्वत का खण्डखण्ड उनकी प्रशस्तियों X से भरा हुआ है ? इसमें तो एक नाम लिखने की भी जगह नहीं है ....!' सम्राट चक्रवर्ती भरत का अहंकार गल गया। " विस्मित से देखते रहे, अपना नाम लिखने के लिए उन्हें एक पंक्ति बराबर भी जगह खाली नहीं मिली। बहुत देर सोचने के बाद चक्रवर्ती ने किसी चक्रवर्ती के नाम की प्रशस्ति को अपने वज्रोपम हाथों से मिटाया और वहाँ पर अपनी प्रशस्ति लिखी 'मैं इक्ष्वाकु वंशरूपी गगन का चन्द्र, विश्वविजेता, चारों दिशाओं की पृथ्वी का स्वामी, अपनी माता के सौ पुत्रों में ज्येष्ठ, भगवान ऋषभदेव का RA AMw NUA
SR No.032264
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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