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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/32 का स्मरण प्रत्यक्ष की तरह होने लगा। उन्हें स्मरण हुआ कि “पुष्करार्ध द्वीप के पश्चिम विदेह में पद्म नामक एक प्रसिद्ध देश है, उसके कान्तपुर नगर का स्वामी राजा कनकरथ था, उसकी रानी का नाम कनकप्रभा था, उन दोनों के मैं अपनी प्रभा से सूर्य को तिरस्कृत करने वाला कनकप्रभ नामक पुत्र हुआ था। एक दिन बगीचे में विद्युत्प्रभा नाम की मेरी स्त्री को साँप ने काट खाया, उसके वियोग से मैं विरक्त हुआ और अपने ऊपर अत्यन्त स्नेह रखनेवाले पिता-माता तथा भाइयों के साथ-साथ मैंने समाधिगुप्त मुनिराज के समीप उत्कृष्ट संयम धारण कर लिया। वहाँ मैं दर्शनविशुद्धि आदि सोलह भावनाओं का भलीप्रकार चिन्तवन करता हुआ आयु के अन्त में जयन्त नाम के विमान में अहमिन्द्र उत्पन्न हुआ। और आयु पूर्ण करके वहाँ से चयकर यहाँ श्रीपाल का पुत्र गुणपाल हुआ हूँ।"
वे इसप्रकार विचारकर ही रहे थे कि इतने में ही स्वर्गलोक से लौकान्तिक देवों ने आकर उनके वैराग्य की अनुमोदना की। इसप्रकार प्रबोध को प्राप्त हुए गुणपाल मोहजाल को नष्ट कर तपश्चरण करने लगे और घातिया कर्मों को नष्ट कर सयोगिपद - तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त हुए। श्रीपाल की दूसरी रानी सुखावती का पुत्र यशपाल भी इन्हीं तीर्थंकर गुणपाल जिनेन्द्र के पास दीक्षा धारण कर उनके पहले गणधर हुये। ___ उसी समय चक्रवर्ती सम्राट श्रीपाल ने बड़ी विभूति के साथ आकर गुणपाल तीर्थंकर की पूजा की और गृहस्थ तथा मुनि सम्बन्धी दोनों प्रकार का धर्म सुना । तदन्तर बड़ी विनय के साथ अपने पूर्वभवों का वृत्तांत सुना। __ पुण्यात्मा श्रीपाल जन्म, जरा और मृत्यु रोग का नाश करने के लिए बुद्धि स्थिर करके धर्मरूपी अमृत का पान कर विचार करने लगे कि - "यह चक्रवर्ती का चक्र कुम्हार के चाक समान है, और साम्राज्य कुम्हार की सम्पति के समान है; क्योंकि जिसप्रकार कुम्हार अपना चक्र (चाक) चलाकर मिट्टी से घटादि वर्तनों को बनाकर उनसे अपनी आजीविका चलाता है, उसीप्रकार मैं चक्रवर्ती भी अपना चक्र (चक्ररत्न) चलाकर मिट्टी में से उत्पन्न हुए रत्नादि से अपनी