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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/31
वे एक समय में ही तीन काल तीन लोक के समस्त चराचर पदार्थों को उनके द्रव्य-गुण- पर्याय सहित जान लेते हैं। " - ऐसा विचार कर वसुपाल निश्चिंत हो, केवली प्रभु की दिव्यध्वनि का लाभ लेने में मग्न हो गये ।
केवली के वचनानुसार श्रीपाल कुछ ही समय में अनेक रानियों और वैभव के साथ केवली भगवान के दर्शनार्थ सुरगिरि पर्वत पर आ पहुँचे। उन्होंने वहाँ गुणपाल जिनेन्द्र की वन्दना - स्तुति करने के पश्चात् अपनी माता व भाई वसुपाल का भी आशीर्वाद प्राप्त किया। अपने साथ आई हुई रानी सुखावती का अपनी माता व भाई से यह कहकर परिचय कराया कि "मैं इसके प्रभाव से ही कुशलतापूर्वक आपके पास आ सका हूँ।” सो ठीक ही है - सज्जन पुरुष अपने ऊपर किए हुए उपकारों को कभी नहीं भूलते।
पश्चात् वे सात दिन में सुखपूर्वक अपने नगर में प्रविष्ट हुए । सो ठीक ही है, क्योंकि प्रबल पुण्य का उदय होने के कारण पुरुषों पर आई आपत्तियाँ भी सम्पत्ति व सम्मान लेकर आती हैं।
इसप्रकार अनेक प्रकार के जगत सुख भोगते हुए श्रीपाल को एक दिन रूपवान व गुणवान जयावती रानी के उदर से पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई । वह गुणों की खान होने से, ज्योतिषियों ने उसका नाम 'गुणपाल' ही रख दिया । तथा उसी दिन राजा श्रीपाल की आयुध शाला में चक्ररत्न प्रगट हुआ। चक्ररत्न की प्राप्ति से वे राजा श्रीपाल - चक्रवर्ती सम्राट बन गये । चक्रवर्ती | श्रीपाल के पुत्र गुणपाल के युवा होने पर जयसेना आदि अनेक गुणवान कन्याओं से उनका विवाह हुआ ।
जिसका मोक्ष जाना अत्यन्त निकट रह गया है - ऐसे श्रीपाल पुत्र राजकुमार गुणपाल काललब्धि आदि से प्रेरित होकर एक दिन आकाश की ओर देख रहे थे कि इतने में उनकी दृष्टि अकस्मात् अन्धकार से भरे हुए चन्द्रग्रहण की ओर पड़ी, उसे देखकर वे सोचने लगे कि " इस संसार को धिक्कार है, जब इस चन्द्रमा की भी यह दशा है तब संसार के अन्य पापग्रसित जीवों की क्या दशा होगी ? ” - इसप्रकार वैराग्य आते ही उन उत्कृष्ट बुद्धिवाले गुणपाल को जातिस्मरण उत्पन्न हो गया, जिससे उन्हें अपने पूर्वभव