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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १४/३६ संसार को पार करनेवाली ऐसी जिनभक्ति उसके अंतर में अतिशय उल्लसित होती थी। उनके आंगन में हमेशा विद्वान धर्मात्मा सत्पात्रों का सम्मान होता था। पर्व के दिनों में वे संयम का पालन करते थे और धर्म को ही सकल सिद्धिदायक समझते थे । अतः धर्म, अर्थ और काम के बीच भी वह मोक्षसाधना भूले नहीं थे, गृहस्थ जीवन में भी उनकी आत्मसाधना चल रही थी । सचमुच धन्य था उनका गृहस्थ जीवन ! सन्मार्ग दर्शक राजा वरांग - धर्मात्मा वरांग, राज्यसभा में भी बारम्बार धर्म चर्चा सुनाकर प्रजा को सन्मार्ग दिखाते थे । उन्होंने कहा एकबार हिंसक - यज्ञ में दोष बताते हुए "यज्ञ में होम करने के लिए आये पशु यदि स्वर्ग में जाते होवें तो फिर सबसे पहले वे यज्ञकर्त्ता पुरुष अपने पुत्रादि सगे-संबंधियों को यज्ञ में होम करके उनको ही स्वर्ग में क्यों नहीं भेजते ? यदि यज्ञादि के बहाने मूक प्राणियों की हिंसा करनेवाले और मांस भक्षण करनेवाले भी स्वर्ग में जायेंगे तो फिर नरक में कौन जायेगा ? अरे रे..... जिसमें जीवदया नहीं है, वह धर्म कैसा ? और वे वेद - शास्त्र कैसे ?” इस प्रकार उन्होंने उपदेश देकर प्रजा को सन्मार्ग दिखाया । वरांग राजा का युक्तिपूर्ण धर्मोपदेश सुनकर विद्वानों, मंत्रियों, सेनापति, श्रेष्ठिजनों और उनकी प्रजाजनों को बहुत प्रसन्नता हुई और तत्त्वज्ञान पूर्वक उन्होंने मिथ्या मार्ग का सेवन छोड़कर परम हितकारी जैनधर्म की शरण ली तथा सदाचार में तत्पर हुए। इस प्रकार प्रजा में सर्वत्र आध्यात्मिक शांति का वातावरण फैल गया। एक राजा धर्मप्रेमी हो तो प्रजा में भी धर्म कैसे फैलता है । इसका स्पष्ट उदाहरण राजा वरांग और उनकी प्रजा को देखकर मिलता है।
SR No.032263
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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