SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/३५ यहाँ उत्तमपुर में उसका भाई सुषेणकुमार राज्य संभाल रहा था, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली। बकुलनरेश ने उसके ऊपर आक्रमण किया, तब उसने ललितपुर की सहायता माँगी। वहाँ से वरांगकुमार आया और दुश्मन को दाँत खट्टेकर भगा दिया। नगरवासियों ने अपने प्रिय राजा वरांगकुमार का नगर में भव्य स्वागत किया। वरांगकुमार ने सबको क्षमा करके एक नये राज्य की स्थापना की, परिजन तथा पुरजनों को धर्मोपदेश दिया, जिनबिम्ब-प्रतिष्ठा कराई, नास्तिक मंत्रियों को जैनधर्म का स्वरूप समझाया और प्रजा का ज्ञान बढ़ाने एवं उत्तम संस्कार देने के लिए तत्त्व तथा पुराणों का उपदेश दिया। वरांगकुमार को सुगात्र नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। श्री नेमिनाथ प्रभु के गणधर वरदत्त मुनि, केवलज्ञान प्राप्त होने पर एकबार उत्तमपुरी नगरी में पधारे, तभी वैरागी वरांगकुमार ने उनका धर्मोपदेश सुना । वे युवराज थे और संसार की अनेक मुसीबतों से पुण्ययोग के कारण पार हुए थे। उन्होंने राज्य के बीच रहकर धर्मपालन पूर्वक अनेक मंगल कार्य किये थे। एक दिन आकाश में तारा टूटते हुए देखकर वरांग राजा का चित्त संसार से विरक्त हुआ और वे दीक्षा लेने के लिए तैयार हो गये। प्रथम तो उन्होंने जिन-पूजन का महान उत्सव किया तथा भावना भायी कि जैनधर्म जयवंत वर्तो ! अर्थात् अर्हतदेव के शासन में अनुरक्त चार संघ सदा जयवंत रहें। जिनालय और जिनवाणी की अतिशय वृद्धि हो। जनता हमेशा आनंदमय उत्सव मनाती रहे और धर्म के पालनपूर्वक न्यायमार्ग पर चलती रहे। धर्म में पाखण्ड न हो। गुणीजनों का सर्वत्र गुणगान होता रहे। प्रजा में से मद्य, मांस और मधु आदि सात व्यसनों के महापाप का समूल नाश हो। उन्होंने अपनी रानियों को भी तत्त्व का उपदेश देकर सम्यक्त्व और अणुव्रतों की शिक्षा दी थी। __ आज भी उन्होंने राज्यसभा में प्रजाजनों को जैनधर्म के पालन का सुन्दर उपदेश दिया।
SR No.032263
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy