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________________ उत्तम क्षमा आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी एक प्रतिभाशाली असाधारण विद्वान तो थे ही, किन्तु साथ ही अलौकिक महापुरुष भी थे। इनकी विद्वत्ता को देखकर जयपुर नरेश महाराज माधवसिंह भी इनका बड़ा सम्मान करते थे। धर्मचर्चा करने ये कभी-कभी राजदरबार में भी जाया करते थे। एक बार ये राजा से मिलने के लिए राजभवन में जा रहे थे। राजभवन में पहरे पर एक नया सैनिक खड़ा था। ये रोज की तरह अपने सीधे-साधे साधारण वेश में पहरेदार से बिना कुछ पूछे राजदरबार के भीतर चले गये। सैनिक ने दौड़कर इनको एक तमाचा जड़ते हुए कहा- 'क्या तुम में इतनी भी सभ्यता नहीं कि कम से कम किसी से पूछ लें। उठाया मुंह और चल दिए राजा से मिलने!' पण्डितजी ने कहा - 'अच्छा भाई! अब पूछ लेते हैं, अब तो चले जावें!' 'हाँ जाओ!' पण्डितजी ने राजसभा में उस पहरेदार की राजा से बड़ी प्रशंसा की और कहा आपका नया पहरेदार सैनिक कर्तव्यनिष्ठ और ईमानदार आदमी है, इसको कुछ पारितोषिक अवश्य दिया जावे। राजा ने उसकी इतनी प्रशंसा सुनकर उस पहरेदार को बुलाया। पण्डितजी को राजा के बिल्कुल पास बैठा हुआ देखकर पहरेदार काँप उठा। उसने सोचा ये तो कोई राजा का निजी आदमी है और इन्होंने मेरी शिकायत कर दी है। इतने में राजा ने कहा – 'सैनिक ! पण्डितजी तुम्हारी ईमानदारी की प्रशंसा कर रहे हैं, इसलिए आओ तुम्हें पारितोषिक दिया जा रहा है।' पहरेदार ने व्यंग समझ कर कहा – ‘अन्नदाता ! मारो या पालो, मुझसे अपराध तो बन पड़ा है। किन्तु मैंने अनजाने में ही इन्हें मार दिया। मैं नहीं जानता था कि सीधेसाधे वेश में ये कौन महाशय हैं ? पहरेदार ने सब घटना सुनाई। राजा पहरेदार से सच्ची और पूरी घटना सुनकर पण्डितजी की महानता पर आनन्द विभोर हो उठा। - सन्मति सन्देश से साभार
SR No.032263
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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