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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १२ - अभय जरूर माता ! (भक्ति प्रारम्भ कर देते हैं ।) ऐसे मुनिवर देखे वन में, जाके राग-द्वेष नहीं मन में ।। टेक ॥ ग्रीष्म ऋतु शिखर के ऊपर, मगन रहे ध्यानन में ॥१॥ चातुर्मास तरुतल ठाड़े, बूँद सहे छिन छिन में ॥२॥ शीत मास दरिया के किनारे, धीर धरें ध्यानन में ॥३॥ ऐसे गुरु को मैं नित प्रति ध्याऊँ, देत ढोक चरनन में ॥४॥ चेलना - ( ( हाथ जोड़ कर गद्गद् भाव से) हे प्रभो ! अब उपसर्ग सर्व प्रकार से दूर हुआ है। प्रभो ! अब ध्यान छोड़ो, हमारे ऊपर कृपादृष्टि करो। प्रभो ! हम बालकों पर कृपा करो । मुनिराज - धर्मवृद्धिरस्तु ! आप सबको धर्मवृद्धि हो । ( मुनिराज के ये शब्द परदे में से आते हैं ।) श्रेणिक - अरे, क्या मुनिराज ने मुझको भी धर्मवृद्धि का आशीर्वाद दिया ? - - 63 चेलना हाँ महाराज ! जैनमुनि तो वीतरागी होते हैं। उनके शत्रु और मित्र के प्रति समभाव होता है। चाहे कोई पूजा करे, चाहे निंदा करे तो भी उनके प्रति समभाव है। चाहे हीरों का हार, चाहे फणीधर नाग,इन दोनों में भी उनको समभाव होता है । अहो ! यही तो है इन मुनिवरों की महानता। अरि-मित्र महल - मशान, कंचन - काँच निन्दन - श्रुति करन । अर्घावतारण असिप्रहारण, में सदा समता धरन ॥ शत्रु -1 -मित्र प्रति वर्ते है समदर्शिता, मान-अमाने वर्ते वही स्वभाव जो । जीवित के मरणे नहिं न्यूनाधीकता, भव- मोक्षेपण शुद्ध वर्ते समभावजो ॥ श्रेणिक - अहो देवी ! धन्य है इन मुनिराज को । वास्तव में जैन मुनियों के समान जगत में दूसरा कोई नहीं । अरे रे ! मुझ पापी ने यह कैसा महा भयंकर अपराध किया ?
SR No.032261
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2012
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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