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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ सैनिक - (दु:खी होकर) राजन् ! अब भी चेतो, अरे ! जिनकी शान्त मुद्रा देखकर कुत्ते जैसे जानवर भी शान्त और नम्र हो गए, ऐसे मुनिराज पर क्रोध करना आपको उचित नहीं। श्रेणिक - नहीं, नहीं, ये तो कोई जादूगर हैं, उसने जादू के मंत्र से कुत्तों को शान्त कर दिया है, परन्तु मैं आज बदला लिए बिना नहीं रहूँगा। (कुछ क्षण रुककर, इधर-उधर देखकर पुन: कहता है।) सैनिको! देखो, वह भयंकर मरा हुआ काला नाग यहाँ लाओ और इस मुनि के गले में पहना दो। (एक सैनिक सर्प लाकर श्रेणिक को देता है।) श्रेणिक - लाओ! (वह सर्प लेकर मुनिराज के गले में डाल देता है और अत्यन्त हास्य करता है। हा..हा...हा..। इस प्रसंग से दूसरा सैनिक बेभान जैसा होकर नीचे बैठ जाता है।) श्रेणिक-बस! मेरे गुरु के अपमान का बदला मिल चुका है। चलो सैनिको, यह समाचार मुझे अपने गुरुओं को भी " देना है। (तभी परदे में से -) “अरेरे..! धिक्कार ! धिक्कार ! धिक्कार ! परम वीतरागी जैनमुनि पर घोर उपसर्ग कर श्रेणिक राजा ने सातवें नरक का घोर पापकर्म बाँधा है।" -यह सुनकर श्रेणिक कुछ क्षुब्ध होता है, फिर भी श्रेणिक एवं एक सैनिक वहाँ से एकान्ती गुरु को यह समाचार देने के लिए उनके मठ की ओर चले जाते हैं, परन्तु दूसरा सैनिक वहीं बैठा रहता है।) (एकान्ती गुरु मठ में बैठे हैं। राजा श्रेणिक आकर वंदन करते हैं।) एकान्ती गुरु - क्यों महाराज ! क्या कोई खुशी के समाचार लाए हो, जो इतने हर्षित नजर आ रहे हो ?
SR No.032261
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2012
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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