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________________ 24 जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ हो वह आरम्भ है। षट्काय के जीवों का उपद्रव करना उपद्रवण है। षट्काय के जीवों का छेदन हो जाना विद्रावण है और षट्काय के जीवों को संताप देना वह परितापन है। इसप्रकार षट्काय के जीवों को आरम्भ, उपद्रवण, विद्रावण और परितापन देकर जो आहार स्वयं करे, अन्य से करावे और करते हुए को भला जाने; मन से, वचन से और काया से इसप्रकार नव-प्रकार के दोषों से बनाया गया भोजन अधःकर्म दोष से दूषित है, उसे संयमी दूर से ही त्याग देते हैं। ऐसा आहार जो करते हैं वे मुनि नहीं गृहस्थ हैं। यह अधःकर्म नामक दोष छियालीस दोषों से भिन्न महादोष है। प्रश्न - मुनिराज तो अपने हाथ से भोजन बनाते नहीं हैं तो फिर ऐसा दोष इन्हें क्यों कहा? उत्तर - कहे बिना मंदज्ञानी कैसे जाने ? जगत में अन्यमत के वेशी स्वयं करते भी हैं और कराते भी हैं और जिनमत में भी अनेक वेशी स्वयं करते हैं और कहकर कराते भी हैं, इसलिये इसको महादोष जानकर त्याग करना। अधःकर्म से बनाया हुआ भोजन लेने वाले को भ्रष्ट जानकर धर्म मार्ग में अंगीकार नहीं करना - ऐसा भगवान के परमागम का उपदेश है। (भ.आ.पृ. १०२) ____धात्री दोष, दूत, विषग्वृत्ति, निमित्त, इच्छविभाषण, पूर्वस्तुति, पश्चात्स्तुति, क्रोध, मान, माया, लोभ, वश्यकर्म, स्वगुणस्तवन, विद्योत्पादन, मंत्रोपजीवन, चूर्णोपजीवन। इन सोलह उत्पादन दोषों से युक्त जो भोजन करता है उसका साधुपना बिगड़ जाता है। - अब एषणा नामक भोजन के दश दोष - शंकित, म्रक्षित, निक्षिप्त, पिहित, व्यवहरण, दायक, उन्मिश्र, अपरिणत, लिप्त और परित्यजन। इसप्रकार मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदना से इन दोषों का त्याग करके तथा उद्गम, उत्पादन, एषणा के बियालीस भेद रूप दोष
SR No.032261
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2012
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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