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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१२ स्तुति करके राजा अपने साधर्मियों व नगरवासियों सहित अपने गृह को लौट आये। कुछ दिनों के बाद पूज्य गुरुवर आहार-चर्या हेतु नगर में पधारे और पड़गाहन हेतु महाराजा बालि एवं नगरवासी अपने-अपने द्वार पर खड़े थे, उनका भाग्य चमक उठा और उन्हें महापात्र गुरुवरों के आहार दान का लाभ प्राप्त हो गया। नवधा भक्तिपूर्वक मुक्ति साधक श्रीगुरुओं को दाताओं ने भक्तिपूर्वक आहार दान देकर अपूर्व पुण्य का संचय किया। पश्चात् गुरु महिमा गाते हुए उत्सव मनाते हुए गुरुवरों के साथ वन-जंगल तक गये। पश्चात् सभी अपने-अपने घर को आकर अपने नित्य-नैमित्तिक कार्यों को करते हुए भी उनके हृदय में तो गुरुराज ही बस रहे हैं, यही कारण है कि उन्हें चलते-फिरते, खाते-पीते अर्थात् प्रत्येक कार्य में गुरु ही गुरु दिख रहे हैं। इधर महाराजा बालि की प्रतिज्ञा के समाचार जब लंकापुरी नरेश रावण ने सुने तब उसे ऐसा लगा कि मुझे नमस्कार नहीं करने की इच्छा से ही बालि ने यह प्रतिज्ञा ली है, अन्यथा और कोई कारण नहीं है। मैं अभी इसको प्रतिज्ञा लेने का मजा चखाता हूँ। लंकेश ने शीघ्र ही एक शास्त्रज्ञ विद्वान दूत को बुलवाया और आज्ञा दी- हे कुशाग्रमते ! आप शीघ्र ही किष्किंधापुरी जाकर बालि नरेश को सूचित करो कि आप अपनी बहन श्रीमाला हमें देकर एवं नमस्कार कर सुख से अपना राज्य करें। विद्वान् दूत राजाज्ञा शिरोधार्य कर शीघ्र ही किष्किंधापुरी पहुँचा, उसने राजा बालि के मंत्री से कहा - आप अपने राजा साहब को संदेश भेज दीजिये कि लंका नरेश का दूत आप से मिलना चाहता है। मंत्री ने राजा के पास जाकर निवेदन किया - हे राजन् ! लंकेश का दूत आपसे मिलने के लिये आया है, आपकी आज्ञा चाहता है। राजा ने दूत को ले आने की स्वीकृति दे दी।
SR No.032261
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2012
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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