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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१०/७९ "जिस मार्ग से स्वामी नेमिनाथ गए, वही मेरा मार्ग!'' ऐसे दृढ़ निश्चय के साथ वह भी चली गईं गिरनार धाम की ओर अपनी आत्मसाधना करने के लिए। यह नेमि और राजुल का जीवन आज भी जगत को आदर्श वैराग्य जीवन का सन्देश दे रहा है। ६. मैं अपना सिद्धपद लूंगा..... सिद्ध भगवान के परमसुख की बात सुनते ही जिज्ञासु को सिद्धपद की भावना जागृत हुई...... वह सिद्ध भगवान की ओर देखकर उन्हें बुलाता है कि हे सिद्ध भगवन्त! यहाँ पधारो! परन्तु सिद्ध भगवान तो ऊपर सिद्धालय में विराजमान हैं....वे नीचे आयेंगे क्या? नहीं। और सिद्ध भगवान को देखे बिना जिज्ञासु को समाधान नहीं हो सकता। अन्त में किन्हीं अनुभवी धर्मात्मा से उसकी भेंट हो गई। उन्होंने कहा कि तू अपने में देख तो तुझे सिद्धपद दिखायी देगा। अपने ज्ञान दर्पण को स्वच्छ करके उसमें देख तो तुझे सिद्ध भगवान अपने में दिखायी देंगे। जब उसने अंतर्मुख होकर सम्यग्ज्ञान रूपी दर्पण में देखा तो उसे अपने में सिद्ध भगवान दिखायी दिये, अपना स्वरूप ही सिद्ध समान देखकर धर्मी जीव को परम प्रसन्नता हुई–परम आनन्द हुआ। इसका तात्पर्य यह है कि हे जीव! तेरा सिद्धपद तेरे ही पास है, बाह्य में नहीं है। इसलिये अपने पद को अपने में ही ढूंढ़.....अंतर्मुख हो।
SR No.032259
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2007
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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