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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१०/७० में तृप्त व संतुष्ट हूँ। इच्छा रूपी रोग मुझे नहीं है, फिर मैं परद्रव्य का ग्रहण किसलिए करूँ? दवा चाहे जितनी अच्छी हो, परन्तु जिसे रोग ही नहीं है उसे उससे क्या प्रयोजन। इसीप्रकार जगत में भले ही कैसे भी पदार्थ क्यों न हों; परन्तु जिनके इच्छा ही नहीं है, उन्हें उनसे क्या प्रयोजन हो सकता है? वे तो मात्र उन्हें जानते हैं। उनका ज्ञान निरोगी है, आकुलता रहित है और ऐसे निरोगी व निराकुल ज्ञानस्वभाव में तृप्त जीव जगत के पदार्थों को जानता है, परन्तु उनमें से किसी को ग्रहण नहीं करता, जो अपने में अतृप्त होता है, वही दूसरों को प्राप्त करने की इच्छा करता है। जिसे परपदार्थों को ग्रहण करने की इच्छा है वह दुखी है तथा जो स्वरूप में तृप्त हैं, वही सुखी है। - ध्यान करना आतम का, आतमा ही राम है। जो किया हैआजतक, वहतो सभी निष्काम है।।टेक।। सूरजचमककोदेखमृग,नित दौडता जल के लिये। किंतु जल मिलता नहीं, वहां चिलचिलातीधूप है। व्यर्थ परिश्रम कर रहा, क्यों कि वहाँ अज्ञान है। ध्यान करना आतमा का, आतमा ही राम है।।१।। इस तरह तूं भी परिश्रम, कर रहा स्वजनों के साथ। सुखकीआशालियेहै, परदुःखही है उनकेहाथ।। क्या तुझे दे पायंगे, वह तो स्वयं वीरान हैं। ध्यान करना आतमा का, आतमा ही राम है।॥२॥ क्यों अरुचि लाता नहीं, विषयांध आठों याम है। दुःख चहुंगति में उठाने, का यही परिणाम है।। छोड़ रागादिक सभी से, 'प्रेम' सच्चा काम हैं। ध्यान करना आतमा का, आतमा ही राम है।।३।
SR No.032259
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2007
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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