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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१०/६८ करने का है और न ही परदेश जाने का है। मेरा ध्येय तो छोटेछोटे बालकों को अच्छी-अच्छी ज्ञानवर्धक बातें सिखाने का है; क्योंकि यदि वे संस्कारी बालक हुए तो अपना हित-अहित स्वयं सोच सकते हैं। छटवें मित्र ने कहा- मुझे तो परभव की चिंता है, इसलिए मैं तो अपना सम्पूर्ण समय पूजा पाठ, परोपकार, दया, दान आदि कार्यों में लगाऊँगा, जिससे मुझे अगले भव में अवश्य ही स्वर्गादि की प्राप्ति होगी। सातवें मित्र ने कहा- परभव की किसे खबर है, परभव. की चिंता करके इस भव के सुखों को छोड़ना -यह कोई समझदारी नहीं है। अरे, अभी मजे-मौज से जीना और जिंदगी में प्राप्त भोगों को भोगना मेरा तो यही ध्येय है।। आठवें मित्र ने कहा- अपने को तो जीवन में शांति से रहना और संतो की सेवा करना, यही एक मात्र मेरे जीवन का ध्येय है। नवमें मित्र ने कहा- दुनियाँ में आज भी बहुत से जीव दुखी हैं, उन दुखी जीवों की सेवा में ही मैं अपना सारा जीवन लगा देना चाहता हूँ। बस मेरी तो यही भावना है। दसवें मित्र ने कहा- भाई! मेरी तो एक ही भावना है कि मैं इस अमूल्य मनुष्य जीवन में अपने आत्मा को प्राप्त करूँ और आत्मा की शुद्धता को प्राप्त करके सच्ची शांति प्राप्त करूँ और इन भव दुखों से हमेशा के लिए छूट जाऊँ –यही मेरे जीवन का ध्येय है। दसवें मित्र की उत्तम बात सभी मित्रों को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण व हितकर लगी, सभी ने उत्साह से स्वीकार कर ली। वास्तव में सभी जीवों को सत्-समागम और जैनधर्म का ऐसा उत्तम योग्य प्राप्त कर अपनी आत्मा की शांति का अनुभव और मोक्ष की साधना करना चाहिए। सभी के जीवन का एक मात्र यही ध्येय होना चाहिए।
SR No.032259
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2007
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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