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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१०/६० हमारा पंथ है। माता की आँखों से आँसू की धारा बहती जाती है और वैराग्य पूर्वक कहती है कि हे पुत्र! तू आत्मा के परम-आनन्द में लीन होने के लिये जाता है, तो मैं तेरे सुख के मार्ग में बाधक नहीं बनूँगी....मैं तुझे नहीं रोकूँगी.... तू मुनि होकर आत्मा के परमानन्द की साधना के लिये तैयार हआ है उसकी मैं अनुमोदना करती हैं। बेटा! तू आत्मा के निर्विकल्प आनन्द रस का पान कर। हमें भी वही करने योग्य है।- इसप्रकार माता पुत्र को आज्ञा देती है। अहा! आठ वर्ष का कुँवर जब वैराग्य पूर्वक इस प्रकार माता से आज्ञा माँगता होगा और माता जब उसे वैराग्य पूर्वक सुख के पंथ में विचरने की आज्ञा देती होगी, वह अपूर्व प्रसंग कैसा होगा! फिर वह छोटा-सा राजकुमार दीक्षा लेकर, मुनि होकर, एक हाथ में छोटासा कमण्डलु और दूसरे हाथ में पीछी लेकर निकलता होगा, उस समय तो ऐसा लगता होगा मानों छोटे-से सिद्ध भगवान - ऊपर से उतर आये हों। वैराग्य का अद्भुत दृश्य! आनन्द में लीनता! वाह रे वाह, धन्य है वह दशा!! ___ और फिर जब वे आहार के लिये निकलते होंगे, आनन्द में झूलते हुए धीरे-धीरे ईर्या समिति पूर्वक चलते होंगे और आहार के लिये नन्हें-नन्हें हाथों की अञ्जलि जोड़कर खड़े होते होंगे, वह कैसा अद्भुत दृश्य होगा! . फिर वे आठ वर्ष के मुनिराज अपने अंत:तत्त्व कारणपरमात्मा के बल द्वारा आत्मध्यान में लीन होकर केवलज्ञान प्रगट करते हैं और सिद्ध हो जाते हैं। -ऐसी आत्मा की शक्ति है। आज भी विदेह क्षेत्र में श्री सीमंधरादि भगवान के निकट आठ-आठ वर्ष के राजकुमारों की दीक्षा के ऐसे प्रसंग बनते हैं।
SR No.032259
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2007
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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