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________________ दो भाई, शान्ति की शोध में जिसे अपने आत्मा का हित करना हो उसे पहले अंतर में खटका जागृत होना चाहिये कि अरे! मेरे आत्मा का हित किस प्रकार हो? मेरे आत्मा को कौन शरण रूप है? संत कहते हैं कि यह देह या राग कोई तुझे शरण नहीं है। प्रभो! एक समय में ज्ञानानन्द से परिपूर्ण तेरा आत्मा ही तुझे शरण है, उसे पहिचान। दो सगे भाई एक साथ नरक में हों, एक सम्यग्दृष्टि हो और दूसरा मिथ्यादृष्टि। वहाँ सम्यग्दृष्टि को तो नरक की घोर प्रतिकूलता में भी चैतन्यानन्द का अंशत: वेदन वर्त रहा है....और मिथ्यादृष्टि अकेले संयोगों की ओर देखकर दुःख की वेदना में तड़फता है....अपने भाई से पूछता है कि- “अरे भाई, कोई शरण है? इस घोर दुःख में कोई सहायक है?...कोई इस वेदना से छुड़ाने वाला है? हाय-हाय! कोई नहीं है इस असह्य वेदना से बचाने वाला।" तब सम्यग्दृष्टि भाई कहता है कि- अरे बंधु! कोई सहायक नहीं है, अंतर में भगवान चैतन्य ही आनन्द से परिपूर्ण है, उसकी भावना ही इस दु:ख से बचाने वाली है। चैतन्य की भावना के बिना अन्य कोई दुःख से बचाने वाला नहीं है - अन्य कोई सहायक नहीं है। यह शरीर और यह प्रतिकूल संयोग इन सब से पार चैतन्य स्वरूपी आत्मा है, ऐसे भेदज्ञान की भावना के अतिरिक्त जगत में दूसरा कोई दु:ख से बचाने वाला नहीं है, कोई शरण नहीं है। इसलिये भाई! एकबार संयोग को भूल जा...और अन्तर में जो आनन्द स्वरूप चैतन्य तत्त्व है, उसकी ओर देख! वह एक ही शरण है। पूर्व काल में तूने अपने आत्मा की परवाह नहीं की, पाप करते हुए पीछे मुड़ कर नहीं देखा, इसलिये इस नरक में जन्म हुआ, अब तो इसी दशा में हजारों वर्ष की आयु पूरी करना
SR No.032259
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2007
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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