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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१०/४८ गवाँ दिया। मैंने इस जड़ हीरे को परखने में अपना अब तक का सारा जीवन बिता दिया, किन्तु अपने चैतन्यरत्न की कभी परख नहीं की। यह भव पूरा होने पर मेरे आत्मा का क्या होगा? इसका मैंने कभी विचार नहीं किया।
मंत्रीजी ने मेरे लिये सात जूतों के इनाम की घोषणा करके मुझे आत्महित के लिये जागृत किया है, इसलिये वे मेरे गुरु के समान हैं।
यहाँ आत्मार्थी जीव विचार करता है कि- अरे! मैंने भी जड़ रत्नादि की तो परख की, किन्तु चैतन्यरत्न को नहीं पहिचाना।
देखो, जो आत्मार्थी हो, जिसे आत्मप्राप्ति की लगन हो-ऐसे जीवों को संत-महात्मा कहते हैं कि अरे जीव तू सुन! यह तेरी कथा कही जा रही है। तेरा आत्मा संसार में किसलिये दुःखी हो रहा है और वह दुःख कैसे दूर हो सकता है, वह मैं तुझ से कहता हूँ।
यह चैतन्य-हीरा क्या वस्तु है इसका भान न करे और गले में सत्रह लाख के हीरों का हार पहिना हो तो, वे हीरे कहीं मृत्यु के समय तुझे शरणभूत नहीं होते। _ जीव को शरणभूत तो एक सम्यग्दर्शन रत्न है। उस रत्न के सिवाय करोड़ों-अरबों के रत्न भी अनंतबार प्राप्त हो चुके हैं, किन्तु वे आज तक न तो शरणभूत हुए हैं, न हैं और कोई न भविष्य में कभी शरणभूत होंगे।
भाई! जगत में तुझे आत्मज्ञान के बिना अन्य कोई शरणभूत नहीं है। देखो, इस जगत में पैसादि का संयोग तो पूर्व पुण्य-पाप के अनुसार होता है। वर्तमान में कोई जीव महापापी हो, दंभी हो तथापि पर्व प्रारब्ध से लाखों रुपये कमाता हआ सुखी दिखाई देता है; और कोई जीव सरल परिणामी हो, पाप से डरने वाला हो तथापि पूर्वभव के अशुभ प्रारब्ध के कारण उसे वर्तमान में भरपेट भोजन भी नहीं मिलता।