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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१०/३६ राजा ने अपने सेनापति से पूछा- वे लोग कितने हैं? सेनापति के यह बताने पर कि वे मात्र छह व्यक्ति ही हैं, पद्मनाभ ने मन ही मन सोचा मेरी कि सेना तो बहुत बड़ी है, सिर्फ छह को परास्त करने में कौन सी कठिनाई है? उसने सेनापति को लड़ाई करने का आदेश दिया। महाबलशाली श्रीकृष्ण ने पांडवों से कहा-लड़ने के लिये प्रथम तुम जाते हो कि मैं जाऊँ? पांडवों ने कहा- हम जाते हैं और आज की लड़ाई में या तो हम नहीं, या पद्मनाभ नहीं। कृष्णजी बोले- अरे पांडव! क्या कहते हो? तुम्हारी बात में “या तो हम नहीं, या वह नहीं' यह जो वाक्य आया इसमें" "हम नहीं" ऐसे अपशकुन-सूचक ....... शब्द पहले आये, अत: तुम नहीं जीत सकोगे। अत: लड़ने के लिये मैं जाऊगा और आज मैं हूँ और पद्मनाभ नहीं। अन्दर से असाधारण पुण्य और सातिशय वीरता की पुकार थी। इसी प्रकार जो अपने पुरुषार्थ को अन्तर्मुख प्रेरित करता है वही सच्चा वीर है। अपने वीर्य को स्फुरित करने में जो कायर है उसे ही ऐसी शंका हुआ करती है कि कर्म का उदय उग्र आयेगा तो? . अरे मूढ़! तू प्रत्याख्यान के/चारित्र के लायक नही है। यह कायरों का काम नहीं। यह तो अपनी वीरता द्वारा जिसने अन्तर में प्रगट किया हो, पांच इन्द्रियों के व्यापार का शमन कर अन्दर अतीन्द्रिय आनन्द प्रगट किया हो वह शूरवीर है, उसे ही सुखमय प्रत्याख्यान होता है। ___कृष्ण अकेले गये। उनके शंखनाद से सारी सेना भय से कांप उठी, धनुष-टंकार से सारी सेना भयभीत होकर छिन्न-भिन्न होकर भागने लगी। अपनी बलवती सेना की दुर्दशा देखकर, पद्मनाभ को शंका हुई, कौन हैं ये?
SR No.032259
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2007
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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