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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१०/३४ है, तब निविकल्प अनुभव होता है, और उस अनुभव में सिद्ध भगवान के समान अतीन्द्रिय आनन्द का वेदन होता है। पुत्र! यही सम्यग्दर्शन प्राप्त करने/प्रगट करने की विधि है। इसकी महिमा अपार है।। अभयकुमार- अहो माता! आपने सम्यग्दर्शन की महिमा और उसको प्राप्त करने का उपाय समझा कर हमारे ऊपर महान कृपा की है। आप धन्य हैं। - - निज को निज-चैतन्यचिन्ह से पहिचान! गोसलिया नाम का एक वणिक पुत्र एक छोटे से ग्राम में रहता था। वह अत्यन्त भोला-भाला था, एक बार वह किसी बड़े शहर में समान खरीदने गया.....शहर की भीड़ में उसे ऐसी भ्रमणा हो गई कि “मैं इस भीड़ में खो गया हूँ", इसलिये शहर में चारों ओर घूम-घूमकर स्वयं अपने आप को ढूँढ़ने लगा.... इसी प्रकार यह भोला अज्ञानी जीव स्वयं अपने स्वरूप को भूलकर अपने को बाह्य में ढूँढ़ता है। ज्ञानी समझाते हैं कि अरे भाई! तेरा आनन्द तुझमें भरा है, तू कहीं खो नहीं गया है। तू स्वयं ज्ञान-आनन्दस्वरूप आत्मा है, किन्तु भ्रमणा से स्वयं अपने को भूलकर संसार में भटक रहा है, इसलिये अपने आत्मा को तू चैतन्य-चिन्ह द्वारा पहिचान। इस मनुष्य भव को पाकर जीवों को आत्मा का स्वरूप समझने के लिये अवकाश नहीं मिलता। यह शरीर तो आज है और कल | नहीं है, शरीर सदैव रहने वाला नहीं है; इसलिये जैसे आत्मा का हित हो- वही कर लेने योग्य है। इसलिये देह से भिन्न ज्ञानानन्दस्वरूप आत्म-वस्तु का भान करना चाहिये। आत्मा के भान बिना जीव ने सब कुछ किया, किन्तु उसके परिभ्रमण का अन्त नहीं आया। इसलिये हे जीव! यदि आत्मा का भान करे तो तेरे भव भ्रमण का अंत आये और तुम्हारी मुक्ति हो। -
SR No.032259
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2007
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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