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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/७६ यहाँ प्रस्तुत किया ही जा रहा है। विशेष इतना है कि किन्हीं के अनुसार ये मान्यखेटपुर नगर के राजा शुभतुंग के मंत्री पुरुषोत्तम के पुत्र थे; किन्हीं के अनुसार इन्हें कांची के जिनदास नामक ब्राह्मण का पुत्र कहा जाता है और किन्हीं के अनुसार आप लघुहव्व नामक राजा के पुत्र कहा जाता है। इनके समय के सम्बन्ध में प्रमुखत: दो मान्यतायें सामने आती हैं। एक के अनुसार उनका समय ६२०-६८० ई. सन् तथा दूसरे के अनुसार ७२०-७८० ई. सन् निर्धारित किया गया है, जबकि दोनों धारणाओं में १०० वर्ष का अन्तर है। साहित्य रचना के क्षेत्र में भी आचार्य अकलंक की अमूल्य देन है। उनकी रचनायें दो प्रकार की हैं। स्वतंत्र ग्रन्थ- १. लघीस्त्रय, २. न्याय विनिश्चय, ३. सिद्धि विनिश्चय, ४. प्रमाण संग्रह। टीका ग्रन्थ- १. तत्त्वार्थवार्तिक, २. अष्टशती। आचार्य अकलंक की शैली गूढ़ एवं शब्दार्थ गर्भित है। ये जिस विषय को ग्रहण करते हैं, उसका गम्भीर एवं अर्थपूर्ण वाक्यों में विवेचन करते हैं। अत: कम से कम शब्दों में अधिक विषय का निरूपण करना इनका ध्येय है। उक्त सम्पूर्ण विवेचन का तात्पर्य मात्र इतना ही है कि जब अकलंकदेव इतनी प्रतिभा के धनी हैं तो उनका जीवन किन-किन उतारचढ़ावों से गुजरा? निकलंक कौन थे? इत्यादि। उक्त प्रश्नों का समाधान इस लघुकृति के माध्यम से प्रस्तुत है। अकलंक-निकलंक के जीवनवृत्त को जानकर हम भी उनके समान बनने का प्रयत्न करें- ऐसी हार्दिक अभिलाषा है। -पण्डित राकेश जैन शास्त्री, नागपुर
SR No.032255
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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