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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/७८ करते हैं, आत्मा में करते हैं; उसीप्रकार जैन न्याय के द्वारा हम धर्म की प्रतिष्ठा पर में करते हैं, सम्पूर्ण विश्व में करते हैं। निश्चय प्रभावना अंग के द्वारा हम आत्मा की प्रभावना करते हैं तथा व्यवहार प्रभावना अंग के द्वारा हम धर्म को सर्वांगीण तथा सम्पूर्ण जगत में फैलाना चाहते हैं। अत: दोनों दृष्टिकोण अपनी-अपनी जगह तर्कसंगत हैं, आवश्यक हैं, उपयोगी हैं, ग्राह्य हैं; क्योंकि आचार्यों ने भी कहा है कि निश्चय के बिना तत्त्व का लोप हो जायेगा और व्यवहार के बिना तीर्थ की प्रवृत्ति संभव नहीं हो सकेगी। इसीप्रकार सिद्धान्त एवं न्याय में भी अन्तर है। जहाँ सिद्धान्त के माध्यम से हम स्वमत वालों के साथ बात करते हैं, चर्चा करते हैं, उपदेश आदि देते / दिलाते हैं; वहीं न्याय के माध्यम से हम परमत वालों के साथ बात करते हैं, चर्चा करते हैं, यहाँ तक कि वाद-विवाद आदि भी करते हैं। स्वमत मण्डन तथा परमत खण्डन का कार्य न्याय के द्वारा ही किया जा सकता है । सम्पूर्ण विश्व तथा समस्त धर्म/सम्प्रदाय न्याय व्यवस्था को स्वीकार करते हैं, अतः जैनधर्म को विश्व में न्याय सम्मत बनाने का कार्य जैन न्याय के माध्यम से ही संभव है। जैन न्याय के क्षेत्र को विकसित तथा समृद्ध बनाने में आचार्य अकलंक देव का विशेष योगदान है। जैन इतिहास भी इस बात का साक्षी है कि जिस समय सम्पूर्ण भारत में अन्य धर्मों का बोलबाला था, उस समय जैन न्याय के प्रणेता आचार्यों ने जैन न्याय के माध्यम से ही जैनधर्म को सुरक्षित रखा है। आचार्य समन्तभद्र, आचार्य अकलंक और आचार्य विद्यानन्दि उन महान आचार्यों में से हैं, जिन्होंने ऐसे कठिन समय में जैनधर्म को न केवल सामाजिक स्तर पर, अपितु राजनैतिक स्तर पर भी प्रतिष्ठित किया। अन्य प्राचीन आचार्यों के समान आचार्य अकलंकदेव के व्यक्तिगत जीवन का परिचय भी विशेषतया प्राप्त नहीं होता है । प्रचलित कथाओं के आधार पर यह 'अकलंक -निकलंक' का नाट्यरूपक तो
SR No.032255
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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