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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/६० अकलंक : जो एक आँख बन्द करके देखते हैं, उनको ही यह ‘स्ववचन बाधित' जैसा लगता है, परन्तु जो दोनों आँखें खोलकर देखते हैं, उनको तो एक ही वस्तु नित्य और अनित्य ऐसे दो स्वरूप में स्पष्ट दिखाई देती है। संघश्री : वाह! एक ही वस्तु और स्वरूप दो? अकलंक : हाँ! एक ही वस्तु अनेक धर्मों वाली है। जो वस्तु द्रव्य की अपेक्षा नित्य है, वही वस्तु पर्याय की अपेक्षा अनित्य है। सुनिये : आत्माद्रव्य अपेक्षा नित्य है......पर्याय अपेक्षाअनित्य.....। बालकादि तीन का....ज्ञान एक को होय.....॥२॥ क्रोधादिक तरतम्यता...सादिक की मांहि.....। पूर्व जन्म संस्कार से.....जीव नित्यता होय॥२॥ अथवा क्षणिक ज्ञान को......जो जाने कहनार......। कहनेवाला क्षणिक नहीं....कर अनुभव निरधार....॥३॥ संघश्री : नहीं, नहीं, ऐसा हो ही नहीं सकता। महोदय, आपने तो कह दिया कि यह हो ही नहीं सकता, लेकिन क्यों?- यह आपने नहीं बताया। अत: आपके धर्म का क्या मत है, वह कहिये? संघश्री : हमारे धर्म का सिद्धांत है कि जो जगत में दिखता है, वह सब क्षणिक है, अनित्य है, नाशवान है, अध्रुव है, क्षणभंगुर है। अकलंक : वाह रे वाह आपका क्षणिकवाद! मैं पूछता हूँ कि आप स्वयं नित्य हैं या क्षणिक? संघश्री : मैं भी अनित्य हूँ और मेरा आत्मा भी अनित्य है। वह क्षण-क्षण में नया-नया होता है। अकलंक : वाह! वाह! जिसने अबतक मेरे साथ चर्चा की है और जो अब चर्चा करेगा, वह आप स्वयं ही हैं या दूसरा है?
SR No.032255
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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