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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/७९ करके संसार छोड़कर अर्जिका हो गईं और सफेद साड़ी में परिणामों की शुद्धता सहित शोभ उठीं। अंजना का वैराग्य और दीक्षा हनुमान ने श्रीपुर नगरी जाकर अंजना माता से सभी बातें कीं। सीताजी का वनवास, अग्निपरीक्षा, शील का प्रभाव - इन सभी बातों को सुनकर, अपनी एक धर्म सखी का ऐसा प्रभाव देखकर अंजना खुश हुईं; परंतु जब हनुमान ने कहा कि "सीता ने दीक्षा ले ली है"....यह बात सुनते ही अंजना का चित्त भी संसार से उदास हो गया....“वाह सीता ! तूने उत्तम मार्ग लिया। जीवन में सुख-दुःख के अनेक प्रसंगों के बीच भी धैर्य रखकर तूने आत्मा की साधना की और अंत में अर्जिका हो गई। वाह बहन ! धन्य है तू ! मैं भी तेरे समान दीक्षा लूंगी।" “बेटा हनुमान ! सीताजी ने दीक्षा ली, वैसी ही दीक्षा लेकर अब मैं भी अर्जिका होना चाहती हूँ। संसार में बहुत दुःख-सुख देखे, अब तो राग-द्वेष से रहित चैतन्यपद को साधकर शीघ्र इस संसार से छूटना है।" “बेटा ! मुझे संसार में एक तेरा मोह था, तेरा राग मैं छोड़ नहीं सकती थी; परंतु अब जैसे सीता ने लव-कुश का मोह छोड़ा, वैसे ही मैं भी तुझे छोड़कर अर्जिका बनूँगी। मैंने पहले से ही निश्चय किया था कि जब सीता अर्जिका बनेगी, तब मैं भी अर्जिका बनूँगी। वह धन्य घड़ी अब आ पहुँची है, इसलिए बेटा हनुमान ! तू मुझे दीक्षा लेने की स्वीकृति दे।" जब से सीता की अग्नि परीक्षा का प्रसंग देखा था, तब से स्वयं हनुमान का मन एकदम वैराग्यमय हो गया था। माता की वैराग्यभरी बातें सुनकर तुरंत उसने अनुमोदना की - “धन्य माता ! आपका विचार अति उत्तम है। पहले से ही आपने मुझे वैराग्य का अमृत पिलाया है, अत: मैं भी वैराग्य के लिए आपको नहीं रोकता । माता ! इस संसार में प्रीति-अप्रीति में कहीं शांति नहीं; शांति चैतन्यधाम में ही है; उसे जाननेवाली आप खुशी से अर्जिका होओ। मैं
SR No.032254
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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