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________________ प जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/६६ आहार दान देने की अभिलाषा सहित, श्री राम का हृदय में चिंतन कर सीता भोजन लेने बैठी। हनुमान ने पास में ही बैठकर अत्यंत वात्सल्य भाव से सीता को भोजन कराया....अहा, लंका नगरी में ११ दिन की उपवासी बहन सीता को आज उसका धर्म-भाई प्रेम से भोजन करा रहा है। बहन को खिलाने से हनुमान के हर्ष का पार नहीं। सीता ने भी भाई समान हनुमान को भी वहाँ पर भोजन कराया.... ___ वाह रे वाह, धर्म वात्सल्यवान साधर्मी धर्मात्मा का प्रेम देखकर जगत के सब दुख भूल जाते हैं । वाह रे वाह धर्म का वात्सल्य ! भोजन करने के बाद भाई-बहन ने उत्तम तत्त्वचर्चा की। स्वानुभूति वाले दोनों भाई-बहनों द्वारा की गई चैतन्यतत्त्व की चर्चा अद्भुत थी। हनुमान ने कहा -“बहन सीता ! पूर्व में किसी मुनिराज का तुमने अवर्णवाद किया होगा, इसी कारण ऐसा संकट तुम्हारे ऊपर आया; परन्तु अब जैनशासन के प्रताप से तुम्हारा संकट दूर होगा, क्योंकि देव-शास्त्रगुरु की अपार शक्ति तुम्हारे जीवन में भरी है।" सीता कहती है- “हाँ भाई, जिनके प्रताप से आत्मा ने स्वानुभूति पायी, उनके उपकार की क्या बात ? संसार की कैसी भी विकट परिस्थितियों में भी स्वानुभूति के प्रताप से जीव को शांति रहती है।" हनुमान – “वाह बहन ! तुम ऐसी स्वानुभूति से शोभा पा रही हो, तुम्हारे मुख से स्वानुभूति की चर्चा सुनकर मुझे बहुत आनन्द होता है।" सीता – "भाई, इस विकट वन में तुम मुझे साधर्मी भाई के रूप में मिले। तुम चैतन्य की स्वानुभूति युक्त हो, मैं तुमसे मिलकर अपने को धन्य मानती हूँ।" हनुमान - "अरे, रावण जैसा राजा जैनधर्म का जानकार भी अभी विषयांध विवेकशून्य होकर दुष्ट कार्य में वर्त रहा है !" . सीता – “वास्तव में जीव का स्वभाव कोई अलौकिक है; जब वह जागता है, तब परभावों को तोड़कर मोक्ष साधने में देर नहीं लगती।"
SR No.032254
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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